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________________ भगवान् — धैर्यादिगुण-सम्पन्न राजा नमि घर से निकले और दीक्षा धारण करके मोक्ष मार्ग में अधिष्ठित हो गए। टीका- राजर्षि नमि ने मिथिला प्रान्त के सारे नगरों का भी त्याग कर दिया, इतना ही नहीं, किन्तु चारों प्रकार की सेना, अन्तःपुर, परिजन – दास-दासियों आदि को छोड़ करके वे दीक्षित हो गए और दीक्षा ग्रहण करने के बाद एकान्त शान्त उद्यान में जा बैठे। इस प्रकार द्रव्य रूप से एकान्त में बैठने के बाद भावरूप से एकान्तवास प्राप्त करने के लिए वे निम्नलिखित विचार करने लगे 'मैं अकेला हूं, न मैं किसी का हूं और न कोई मेरा है, संसार के जितने भी भोग-विलास हैं तथा सांसारिक पुरुषों से जितने भी सम्बन्ध हैं वे सब अनर्थ के कारण हैं, मुझे तो केवल आत्मा की खोज करके उसी में रमण करना चाहिए' । इत्यादि । इस प्रकार से विचार करने के अनन्तर वह राजर्षि सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करते हुए मोक्ष के मार्ग में प्रवृत्त हो गए। ये तीनों - ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्षं के मार्ग हैं, इनका सम्यक्तया आराधन ही भावरूप एकान्तता है । यहां पर भगवान् शब्द का अर्थ धैर्यादिगुण-संयुक्त बुद्धिमान है, क्योंकि जब तक साधक में धैर्या गुणों की विद्यमानता न हो तब तक वह द्रव्य और भाव से एकान्त नहीं हो सकता और जब इन उक्त गुणों को साधक प्राप्त कर लेता है तब उससे कोलाहल में नहीं रहा जाता, इसलिए घर-बार और राज्य-पद आदि सब प्रकार की सम्पत्ति का परित्याग करके स्वयं बुद्ध वह राजा नमि दीक्षा ग्रहण करके एकान्त उद्यान में जा बैठे। अब उनका मिथिलानगरी या अन्य राज्य-सम्पत्ति में किसी प्रकार का भी ममत्व नहीं रहा, उनके लिए उद्यान और राजमहल में अब कोई अन्तर नहीं था। जब तक ममत्व रहता है तब तक ही वस्तुओं में न्यूनाधिकता अथवा भले-बुरे का विचार रहता है और जिस समय पदार्थों पर सेमूर्च्छा हट जाती है उस समय विचारशील व्यक्ति के लिए कोई भी वस्तु अपनी अथवा पराई नहीं रह जाती, उस समय तो उसका दृष्टि-वैषम्य समता या समानता के रूप में परिणत हो जाता है। अतः ममत्व का त्याग करने वाले मुमुक्षु पुरुष द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से ही एकान्तसेवी होते हैं। जिनके हृदय से ममत्व नहीं गया, वे द्रव्य रूप से एकान्त में रहते हुए भी भाव रूप से एकान्तवास करने वाले नहीं होते। राजर्षि नमि तो द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से एकान्तवासी हो गए, अर्थात् राज्य-पद को छोड़ कर दीक्षित होकर एकान्त में जाकर रत्नत्रय की आराधना में प्रवृत्त हो गए। अब राजर्षि नमि के चले जाने के बाद का वृत्तान्त लिखते हैंकोलाहलगभूयं, आसी मिहिलाए पव्वयंतम्मि । तइया रायरिसिम्मि, नमिम्मि अभिणिक्खमंतम्मि || ५ ॥ कोलाहलकभूतम् आसीन्मिथिलायां प्रव्रजति (सति) | तदा राजर्षौ नमौ, अभिनिष्क्रामति ॥ ५ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 306 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं ||
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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