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________________ स देवलोकसदृशान्, अन्तःपुरवरगतो वरान्भोगान् | भुक्त्वा नमिराजा, बुद्धो भोगान् परित्यजति || ३ || पदार्थान्वयः—सो—वह, देवलोगसरिसे—देवलोक सदृश, अन्तेउरवर–रानियों के साथ, गओ—प्राप्त हुआ, वरे—प्रधान, भोए—भोगों को, भुंजित्तु—भोगकर, नमी राया—राजा नमि, बुद्धो—स्वयं ही प्रबुद्ध होकर, भोगे—भोगों का, परिच्चयइ—परित्याग करता है। मूलार्थ-अपनी रानियों के साथ देव समान भोगों को भोगता हुआ वह राजा नमि स्वयं ही प्रतिबोध को प्राप्त होकर उन भोगों को छोड़ देता है—उनका परित्याग कर देता है। टीका राजा नमि देवलोक के समान श्रेष्ठ राजमहलों में रहते हुए श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कामभोगों को भोग करके तत्पश्चात् अपने आप प्रतिबोध को प्राप्त होकर उन काम-भोगों का परित्याग कर देता है। तात्पर्य यह है कि जब राजा नमि ने तत्त्व को समझ लिया तो फिर उसको कामभोगों की विनाशशीलता का भी पता लग गया, अतः उनकी असारता और कटु परिणामों को देखकर उसने उनका परित्याग कर दिया। जब तक मनुष्य किसी पदार्थ के स्वरूप को यथार्थ रूप से नहीं जान लेता, तब तक उसके ग्रहण अथवा त्याग की ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती, अतः उपर्युक्त कथन से यह सिद्ध हो गया कि देवलोक-सदृश कामभोग भी सर्वथा दुख रूप ही हैं, इसलिए राजा नमि ने उन राज-भोगों का अन्तःप्रेरणा से त्याग कर दिया। यहां पर दूसरी बार जो भोगों का ग्रहण किया गया है वह मूढ़ पुरुषों की स्मृति के लिए है, क्योंकि मूढ़ पुरुष ही बार-बार काम-भोगों का स्मरण किया करते हैं। वे भी इनको त्याग दें, एतदर्थ ही इस भोग शब्द का ग्रहण है।' यहां पर 'वर' शब्द का परनिपात प्राकृत के नियम से जानना, तथा च वृत्तिकारः—'वरशब्दस्य प्राकृतत्वात् परनिपातः।' . अब महाराज नमि की प्रव्रज्या का कथन करते हैं... मिहिलं सपुरजणवयं, बलमोरोहं च परियणं सव्वं । चिच्चा अभिनिक्खन्तो, एगन्तमहिडिओ भयवं ॥ ४ ॥ मिथिलां सपुरजनपदां, बलमवरोधं च परिजनं सर्वम् । त्यक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तः, एकान्तमधिष्ठितो भगवान् ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः—मिहिलं—मिथिला नगरी, सपुरजणवयं नगर और देश के साथ, बलंचतुरंगिणी सेना, ओरोहं—अन्तःपुर, च-और, परियणं—परिजन, सव्वं सब को, चिच्चाछोड़कर, अभिनिक्खन्तो—घर से निकलकर—दीक्षा ग्रहण की, एगंतं—एकान्त मोक्ष में, अहिट्ठिओअधिष्ठित हुआ, भयवं—भगवान् । मूलार्थ मिथिला नगरी, मिथिला देश, सेना, अन्तःपुर और परिजन आदि सभी को छोड़कर श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 305 / णवम नमिपवज्जाणामज्झयण
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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