SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध होता है। इसलिए सातवें शुक्र देवलोक के पुष्पोत्तर विमान से च्यव कर इस मनुष्य-लोक में उत्पन्न होने के अनन्तर दर्शन-मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से वह अपने पिछले-देवलोक में होने वाले जन्म का स्मरण करने लगा। यहां पर ‘सरइ-स्मरति' यह जो वर्तमान काल की क्रिया दी गई है वह उसी काल की अपेक्षा से जानना चाहिए। __जाति-स्मरण ज्ञान के बाद फिर क्या हुआ, अब इस विषय में कहते हैं जाइं सरित्तु भयवं, सयसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुत्तं ठवेत्तु रज्जे, अभिणिक्खमई नमी राया ॥२॥ जातिं स्मृत्वा भगवान्, स्वयं संबुद्धोऽनुत्तरे धर्मे । पुत्रं स्थापयित्वा राज्ये, अभिनिष्क्रमति नमिराजा || २ || पदार्थान्वयः–जाइं—जाति को, सरित्तु-स्मरण करके, भयवं—बुद्धिमान्, सयसंबुद्धो स्वतः ही संबुद्ध हुआ, अणुत्तरे-सर्वोत्कृष्ट चारित्र रूप, धम्मे–धर्म में, पुत्तं-पुत्र को, रज्जे-राज्य में राज सिंहासन पर, ठवेत्तु–स्थापन करके, नमी राया-राजा नमि, अभिणिक्खमई-दीक्षा के लिए निकलता है। मूलार्थ—पूर्व जाति को स्मरण करके एवं स्वयं बोध को प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट धर्म में निपुण बुद्धिमान् वह राजा नमि पुत्र को राज्य-सिंहासन पर बिठाकर दीक्षा के लिए घर से निकलता है, अर्थात् तैयार होता है। टीका—वह राजा नमि अपनी पूर्व जन्म की जाति को स्मरण करके अपने आप ही प्रतिबोध को प्राप्त हो गया, अर्थात् सर्वोत्कृष्ट जो चारित्ररूप धर्म है उसके धारण करने की उसमें स्वयमेव रुचि उत्पन्न हो गई, अतः पुत्र को राज्य-सिंहासन पर बिठाकर वह स्वयं दीक्षा के लिए उद्यत हो गया। तात्पर्य यह है कि संसार का परित्याग करके संन्यास व्रत के ग्रहण करने के लिए कटिबद्ध हो गया। जो दीक्षा बोध-पूर्वक ग्रहण की जाती है वह फलवती होती है, बिना बोध के दीक्षा का ग्रहण करना अभीष्ट फल को नहीं देता है। यहां 'स्वयं' के स्थान पर 'सयं' आदेश किया गया है। 'भगवान्' का अर्थ बुद्धिमान है। ___ 'अभिणिक्खमइ' यह लट् लकार का वर्तमान कालिक प्रयोग ऐतिहासिक वर्तमान की अपेक्षा से किया गया है। अब फिर इसी विषय में कहते हैं सो देवलोगसरिसे, अन्तेउर-वरगओ वरे भोए । भुंजित्तु नमी राया, बुद्धो भोगे परिच्चयइ ॥ ३ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 304 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy