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करे उसे क्षत्रिय कहते हैं। अतः इस नगरी को सुरक्षित और भय-रहित बनाकर आपको जाना चाहिए। . ___ गाथा में आएं हुए 'शतघ्नी' शब्द का अर्थ है जो एक बार चलाने पर सैकड़ों मनुष्यों का विनाश कर डाले अर्थात् 'तोप' या इसी प्रकार का कोई अस्त्र विशेष । वृत्तिकार ने तो इसका अर्थ यन्त्र विशेष किया है, परन्तु आजकल के नवीन शोध-कर्ताओं ने इसका अर्थ 'तोप' ही माना है।
_ 'गच्छसि' इस क्रियापद में प्राकृत के–'व्यत्ययश्च' इस नियम के अनुसार तिङ्का व्यत्यय समझना अर्थात् लट् लकार की 'गच्छसि' क्रिया के स्थान में लोट् की 'गच्छ' क्रिया का ग्रहण करना चाहिए।
'खत्तिया' यहां पर भी प्राकृत के नियमानुसार ही सम्बोधन में अकार को दीर्घ किया गया है। यथा 'हे गोयमा' इत्यादि । ‘गच्छसि खत्तिया' का संस्कृत प्रतिरूप 'गच्छ क्षत्रिय' है।
इन्द्र के द्वारा दिए गए सुझाव का अभिप्राय समझ कर राजर्षि नमि ने क्या कहा, अब सूत्रकार इस विषय का वर्णन करते हैं -
एयमटुं निसामित्ता, हेउ-कारण-चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी ॥ १६ ॥
एनमर्थं निशम्य, हेतुकारणनोदितः ।
ततो नमी राजर्षिः, देवेन्द्रमिदमब्रवीत् ॥ १६ ॥ मूलार्थ तदनन्तर देवेन्द्र के इस विचार को सुनकर राजर्षि नमि हेतु और कारण से प्रेरित होकर इन्द्र से इस प्रकार कहने लगे।
टीका—इस गाथा का अर्थ सर्वथा स्पष्ट है, अतः विशेष विवेचना की आवश्यकता नहीं है । राजर्षि उत्तर देते हैं
सद्धं च नगरं किच्चा, तवसंवरमग्गलं । खन्तिं निउणपागारं, तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥ २० ॥
श्रद्धां च नगरं कृत्वा, तपः संवरमर्गलाम् ।
शान्तिं निपुणप्राकारां, त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम् ॥ २०॥ - पदार्थान्वयः—सद्धं श्रद्धा को, नगरं–नगर, किच्चा-बना करके, तव-संवरं तप और संवर को, अग्गलं-अर्गला बनाकर, खंतिं क्षमा को, निउणपागारं निपुण अर्थात् सुदृढ़ प्राकार—कोट बनाकर, तिगुत्तं त्रिगुप्त, दुप्पधंसयं—जो वैरी से नहीं जीता जा सके ऐसा दुर्ग मैंने पहले ही तैयार कर लिया है, इस अर्थ का यहां पर अध्याहार कर लेना चाहिए। ___ मूलार्थ हे ब्राह्मण! कर्मरूप शत्रुओं से अपने आपको सुरक्षित रखने के लिए, श्रद्धारूप नगर, तप-संवररूप अर्गल, क्षमारूप प्राकार-कोट, मनोगुप्तिरूप खाई, वचनगुप्ति रूप अट्टालक और कायगुप्तिरूप शतघ्नी इत्यादि ये सब मैंने पहले ही तैयार कर लिए हैं।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 317 | णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं