SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मदनरेखा गर्भवती थी, तो भी अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए वह वन में चली गई । सुदर्शन नगर का राजसिंहासन सूना हो गया । राजभक्त मंत्रियों ने प्रजा की सहमति प्राप्त कर मदनरेखा के पुत्र चन्द्रयश का राजतिलक कर दिया । वन में मदनरेखा ने एक पुत्र को जन्म दिया और उसके हाथ में अपने पति की नामाङ्क पहिनाकर, किसी वस्त्र की झोली में उसे स्थापित कर एक वृक्ष की शाखा पर उस झोली को लटकाकर अपने शरीर की शुद्धि करने के लिए किसी जलाशय पर चली गई। वहां एक जलहस्ती ने अपनी सूंड से उसे आकाश में उछाल दिया । उसी समय मणिप्रभ नामक एक विद्याधर आकाश में जा रहा था। उसने मदनरेखा को आकाश में ही पकड़ लिया और उसे अपने विमान में बिठा लिया। वह उस पर मोहित होकर वापिस घर की तरफ लौटा । मदनरेखा ने पूछा कि आप आगे न जाकर पीछे की ओर क्यों लौट रहे हैं? तब विद्याधर बोला कि 'हे भद्रे !' मैं साधुवृत्तिधारी अपने पिता जी के दर्शनार्थ जा रहा था, किन्तु मार्ग में तुझ जैसी रूपवती स्त्री के मिलने पर घर की तरफ लौट रहा हूं । तुझे घर पर छोड़कर पुनः मुनि-दर्शनार्थ जाऊंगा । मदनरेखा ने कहा कि मेरे हृदय में भी मुनि दर्शनों की अभिलाषा है, अतः मुझे भी साथ ले चलें । तदनुसार वह विद्याधर मदनरेखा के साथ ही मुनिदर्शन के लिए चला गया और वहां पर परिषद् में बैठकर धर्मोपदेश सुनने लगा। मुनि जी ने अपने ज्ञान से सर्व वृत्तान्त जानकर उस समय ब्रह्मचर्य और स्वदार-सन्तोष व्रत पर हृदयग्राही उपदेश सुनाया। मणिप्रभ का हृदय परिवर्तित हुआ और उसने पर - स्त्री सेवन तथा वेश्यागमनं व्यसन के परित्याग का नियम धारण कर लिया । तत्पश्चात् मदनरेखा ने जंगल में छुटे हुए अपने पुत्र का वृत्तान्त मुनिवर से पूछा। मुनि जी ने मनः पर्यवज्ञान के बल से कहा कि "हे श्राविके ! मिथिला नगरी का राजा पद्मरथ उस वन में क्रीड़ा करने आया था, वही तेरे पुत्र को ले गया है और पालन-पोषणार्थ अपनी रानी को सौंपकर उसने समस्त नगर में उसका जन्म महोत्सव मनवाया है। मदनरेखा ने पुनः पूछा- 'भगवन् ! उस कुमार का उस राजा से पूर्व भव का क्या सम्बन्ध है ? " मुनि बोले—' हे धर्मप्रिये ! इसी जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में मणितोरण नामक नगर में अमितयश राजा राज्य करता था । पुष्पावती नाम की उसकी रानी के पुष्पसिंह और रत्नसिंह नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए । क्रमशः आयु बढ़ने पर राज्यभार उन्हें सौंपकर चक्रवर्ती मुनि अवस्था को प्राप्त हुए। वे दोनों ८४ लाख पूर्व तक राज्य -सुख भोगकर तत्पश्चात् संयम धारण कर मृत्यु के अनन्तर १२ वें देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्यवकर धातकी खण्ड में हरिषेण नामक वासुदेव की रानी समुद्रदत्ता के सागरदेव और सागरदत्त नामक पुत्र हुए। युवावस्था के व्यतिक्रान्त होने पर उन दोनों ने . ११ वें दृढ़सुव्रत तीर्थंकर के पास दीक्षा ग्रहण की। किन्तु काल की विचित्र लीला है। दीक्षा के तीसरे ही दिन उन पर आकाश से अकस्मात् बिजली गिर पड़ी और वे मृत्यु को प्राप्त होकर समाधि - मरण श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 301 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy