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अह णवमं नमिपवग्जाणामायणं
अथ नवम नमिप्रव्रज्यानामाऽध्ययनम
आठवें अध्ययन में निर्लोभता विषयक विवेचन किया गया है और बताया गया है कि जो व्यक्ति लोभ-रहित होता है वह देव और देवराज-इन्द्र आदि द्वारा भी पूज्य बन जाता है, अतः इस नवमें अध्ययन में इसी आशय को लेकर राजर्षि नमि के साथ देवराज इन्द्र के जो प्रश्नोत्तर हुए थे उनका कुछ विस्तृत वर्णन किया जा रहा है। इन्द्र ने राजर्षि नमि को देवलोक से आकर बड़े भाव से वन्दन किया और उनसे इच्छानुसार अनेक प्रश्न किए तथा राजर्षि से उनका यथार्थ उत्तर प्राप्त करके उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। इस नवमें अध्ययन का उक्त आठवें अध्ययन से यही पूर्वोपर सम्बन्ध है।
सर्व प्रथम राजर्षि नमि का पूर्व वृत्तान्त भी जान लेना उपयुक्त होगा
जंबूद्वीप के भारतवर्ष के अवन्ती देशान्तर्गत सुदर्शन नामंक नगर में मणिरथ नाम का राजा राज्य करता था। वह किसी समय अपने छोटे भाई युगबाहु की पत्नी मदनरेखा पर मोहित हो गया। एक दिन उसने मदनरेखा को अपना मनोगत प्रेमभाव जताने के लिए एक दासी के द्वारा नाना भान्ति के सुन्दर पदार्थ भिजवाए। मदनरेखा ने दासी को समझा-बुझाकर वापिस भेज दिया। मणिरथ अपनी इच्छा को सफल न देखकर, काम-पीड़ित होते हुए अतीव व्याकुल हो उठा। ,
एक दिन युगबाहु अपनी प्रिया सहित वन में क्रीड़ा करने गया। रात्रि हो जाने से उसने वहीं शयन किया। मणिरथ ने उसके उद्यान में शयन करने के वृत्तान्त को जानकर और ऐसा विचार कर कि युगबाहु की मृत्यु के पश्चात् मदनरेखा को मेरे अधीन होना पड़ेगा, वह खड्ग लेकर उद्यान में गया
और युगबाहु पर बलपूर्वक प्रहार किया। 'कोई देख न ले' इस अपयश के भय से भयभीत होकर अन्धकार होने के कारण वह भागा और उसका पैर एक महाभयंकर अजगर पर पड़ा। अजगर द्वारा दंशित होकर उसकी मृत्यु हो गई और वह नरक-गति को प्राप्त हुआ।
इधर मदनरेखा ने अपने पति को घायल देखकर और मृत्यु को समीप जानकर धर्म की शरण ग्रहण की और अपने पति को चार प्रकार के आहार तथा अठारह पापों का प्रत्याख्यान कराया। इस प्रकार युगबाहु विधिपूर्वक अनशन करके धर्मानुरक्ति-पूर्वक मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 300 / णवमं नमिपवज्जाणामज्झयणं