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शब्द से सभी प्रकार की अर्थात् देव और तिर्यञ्च सम्बन्धि सभी स्त्रियों का ग्रहण है, इसलिए पुनरुक्ति दोष की संभावना नहीं है । सारांश यह है कि संयमशील साधु को ब्रह्मचर्य रूप सर्वोत्तम धर्म में ही अपनी आत्मा को सर्वथा स्थिर रखकर मोक्ष सुख की प्राप्ति में प्रयत्नशील बनना चाहिए । अब इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं—
इइ एस धम्मे अक्खाए, कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं । तरिहिन्ति जे उ काहिन्ति, तेहिं आराहिया दुवे लोग ॥ २० ॥ त्ति बेमि ।
इति काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं समत्तं || ८ || इत्येष धर्म आख्यातः, कपिलेन च विशुद्धप्रज्ञेन । तरिष्यन्ति ये तु करिष्यन्ति, तैराराधितौ द्वौ लोकौ ॥ २० ॥ इति ब्रवीमि ।
इति कापिलीयमष्टममध्ययनम् सम्पूर्णम् ॥ ८ ॥
पदार्थान्वयः – इइ – इस प्रकार, एस – यह, धम्म — धर्म, अक्खाए — कहा गया है, कविलेणंकपिल भगवान् ने विसुद्धपन्नेणं - निर्मल प्रज्ञा वाले ने, तरिहिंति — तैर जाएंगे — संसार समुद्र से, जे—जो, काहिंति—करेंगे — धर्म को, तेहिं — उन्होंने, आराहिया - आराधन कर लिए, दुवे- दोनों, लोग — लोक, च-उ—ये दोनों अव्यय पद पाद-पूर्त्त्यर्थक हैं, त्ति - बेमि — इस प्रकार मैं कहता हूं ।
मूलार्थ - इस प्रकार निर्मल प्रज्ञा वाले केवल - ज्ञानी कपिल भगवान ने यह धर्म प्रतिपादन किया है, जो इस धर्म का सेवन करेंगे वे संसार-समुद्र से तैर जाएंगे और उन्होंने मानो दोनों लोकों का आराधन कर लिया है। इस प्रकार मैं कहता हूं।
टीका - इस प्रकार यति-धर्म का स्वरूप केवली भगवान् कपिल ने वर्णन किया है, क्योंकि केवली भगवान् का अर्थागम—– आत्मागम ही होता है, इसलिए उन्होंने यह स्पष्ट रूप से कह दिया है कि जो इस धर्म का आचरण करेंगे वे संसार - समुद्र से तैर जाएंगे। इतना ही नहीं, किन्तु उनके द्वारा दोनों ही लोकों की आराधना हो जाती है। जैसे इस लोक में भी तो वे महान पुरुषों के द्वारा पूजे जाते हैं, अर्थात् बड़े-बड़े भद्र पुरुष उनकी पूजा करते हैं और परलोक में भी उनको मोक्ष अथवा उत्कृष्ट देवलोक के सुखों की उपलब्धि होती है। इससे सिद्ध हुआ कि धर्म का अनुसरण करने वाले इस लोक और परलोक दोनों में ही पूजनीय होते हैं।
इस प्रकार भगवान् कपिल केवली के द्वारा उपदेश करने पर वे पांच सौ चार प्रतिबोध को प्राप्त हो गए तथा दीक्षा ग्रहण करके संयमव्रत का आराधन करते हुए वे सारे सद्गति को प्राप्त हुए । ' बेमि' का अर्थ पहले लिखा जा चुका है।
अष्टम अध्ययन संपूर्ण
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 299 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं