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________________ प्रकार के प्रलोभनों से—'मेरी तो आप पर ही प्रीति है, आप ही का मेरे को आश्रय है, आपके बिना तो.. मैं कभी जीवित भी नहीं रह सकती,' इत्यादि स्नेह-युक्त वचनों से कामी पुरुषों को अपने ऊपर मोहित करके फिर उनके साथ दासों का सा बर्ताव करती हैं। ___तात्पर्य यह है कि 'जैसे—इधर आओ! उधर जाओ! यह करो! वह करो! तुम बड़े ही अनुचित काम कर रहे हो!' इत्यादि हलके तुच्छ शब्दों का व्यवहार जैसे एक नौकर के साथ किया जाता है उसी प्रकार यह संमोह-ग्रस्त कामी पुरुषों से व्यवहार करती हैं, इसलिए मुमुक्षु पुरुषों को इनके जघन्य सहवास से सदा दूर ही रहना चाहिए। इस गाथा के द्वारा सूत्रकर्ता ने स्त्रियों के शरीर, मन और वाणी का वर्णन करने के साथ-साथ स्त्रियों में आसक्त होने वालों पर उनकी वाणी तथा व्यवहार का जो प्रभाव पड़ता है तथा इससे प्रभावित होते हुए ऐसे पुरुष किस दशा का अनुभव करते हैं, इस बात का भी दिग्दर्शन करा दिया है। स्त्री को राक्षसी के समान कहने का एक यह भी तात्पर्य है कि संयमशील साधु पुरुषों को इनसे . सदा ही भयभीत रहना चाहिए, इसी में उनका श्रेय है। अब फिर इसी विषय को पुष्ट करते हैं नारीसु नोवगिज्झेज्जा, इत्थी विप्पजहे अणगारे । धमं च पेसलं णच्चा, तत्थ ठविज्ज भिक्खु अप्पाणं ॥ १६॥.. नारीषु नोपगृध्येत्, स्त्री विप्रजह्यादनगारः । धर्मं च पेशलं ज्ञात्वा, तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम्॥ १६॥ पदार्थान्वयः–नारीसु–स्त्रियों में, नोवगिज्झेज्जा—मूर्च्छित न हो, इत्थी स्त्रियों को, अणगारे-अनगार–साधु, विप्पजहे-छोड़ दे, धम्म-धर्म को, च—(निश्चयार्थक है), पेसलं—सुन्दर, णच्चा—जानकर, तत्थ—उस धर्म में, भिक्खु–साधु, अप्पाणं—आत्मा को, ठविज्ज–स्थापित करे। ___मूलार्थ अनगार अर्थात् भिक्षु स्त्रियों में मूर्च्छित न हो, स्त्रियों के संसर्ग को छोड़ दे और धर्म को सुन्दर जानकर उसी में अपनी आत्मा को स्थापित करे। टीका विचारशील साधु स्त्रियों में आसक्त न हो और उनके संग को अन्तःकरण से त्याग दे । साधु को चाहिए कि वह ब्रह्मचर्य रूप धर्म को अति सुन्दर सर्वोत्कृष्ट जानकर उसी में अपनी आत्मा को स्थापित करे। शास्त्रों में सर्व अधर्मों का मूल मैथुन को ही बताया गया है, अतः मैथुन रूप अधर्म का साधु को सर्वथा परित्याग करके ब्रह्मचर्य रूप उत्तम धर्म में ही अपनी आत्मा को स्थिर करना चाहिए। इस प्रकार करने से ही वह अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच सकता है। पूर्व गाथा में स्त्री के त्याग का वर्णन कर दिया गया है और फिर दोबारा भी इस गाथा में उसी के त्याग का 'नारी' शब्द के द्वारा जो विधान किया गया है उसका अभिप्राय यह है कि पूर्व गाथा में . वर्णित स्त्री शब्द केवल मनुष्य जाति की स्त्री का ही बोधक है और इस गाथा में आए नारी और स्त्री श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 298 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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