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________________ करोड़ों तक की सम्पत्ति से भी वह निष्पन्न न हो सका। तात्पर्य यह है कि कपिल देव कहते हैं कि मैं दासी-कृत कार्य के निमित्त केवल दो मासे स्वर्ण लेने के लिए गया था, परन्तु राजा के प्रसन्न होने पर करोड़ों की प्राप्ति होते हुए भी मेरी तृष्णा का निरोध न हो सका। इसके विपरीत मेरी तृष्णा आगे से आगे बढ़ती ही चली गई, अतः जो व्यक्ति यथा-लाभ में सन्तोष मानकर निश्चिंत रहते हैं वे ही वास्तव में सुखी हैं, इसलिए मुमुक्षु पुरुष को उचित है कि वह अपनी आत्मा में कभी भी लोभ का उदय न होने दे। यहां पर इतना ध्यान अवश्य रहे कि यह लोभ का निषेध सांसारिक पदार्थों के सम्बन्ध को लेकर ही किया गया है और ज्ञानप्राप्ति के लिए तो जितना भी लोभ किया जाए उतना कम ही है, क्योंकि आत्मा को अनन्त सुख की प्राप्ति ज्ञान से ही हो सकती है, अतः उसकी वृद्धि में तो जितना भी अधिक प्रयत्न किया जाए उतना ही प्रशंसनीय है। ___ यह तृष्णा क्यों शान्त नहीं होती? इसका उत्तर तो यह है कि जब तक विषयों की आसक्ति दूर नहीं होती, तब तक तृष्णा का शान्त होना असम्भव है और विषयासक्ति में सबसे प्रधान स्त्री और उसका संसर्ग है, इसलिए अब इसी के विषय में कहते है... नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु । जाओ पुरिसं पलोभित्ता, खेल्लन्ति जहा व दासेहिं ॥ १८॥ न राक्षसीषु. गृध्येत्, गण्डवक्षास्वनेकचित्तासु । __ याः पुरुष प्रलोभ्य, क्रीड़न्ति यथा वै दासैः ॥ १८॥ पदार्थान्वयः–नो-नहीं, रक्खसीसु-राक्षसियों में, . गिज्झेज्जा—मूर्छित होवे, गंडवच्छासु–कुच हैं जिनके वक्ष पर, अणेगचित्तासु–अनेक चित्त वाली, जाओ—जो स्त्रियां, पुरिसं—पुरुष को, पलोभित्ता–प्रलोभन देकर—फिर, खेल्लंति—क्रीड़ा करती हैं, जहा—जैसे, व—निश्चय (वा इव अथ मे है), दासेहिं—दासों से। मूलार्थ-जिनके वक्षस्थल पर कुच हैं और जिनके अनेक चित्त हैं तथा जो पुरुषों को मोहित करके फिर उनसे दासों के समान क्रीड़ा करती हैं ऐसी राक्षसी स्त्रियों में आसक्त न होवे। टीका-इस गाथा में स्त्री-सहवास से अलग रहने का उपदेश दिया गया है। स्त्री को राक्षसी कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार राक्षसी रुधिर को पीकर जीवन का विनाश कर देती है उसी प्रकार यह स्त्री भी आत्मा के ज्ञान आदि गुणों को हरने वाली है। उसके उर-स्थल में दो बड़ी-बड़ी मांस की गांठें होती हैं, जिनको स्तन कहा जाता है। यद्यपि कामी पुरुषों ने इन कुच-रूप मांस-ग्रंथियों को स्वर्ण-कलश के समान वर्णित किया है, अर्थात् इनको सोने के घड़ों से उपमित किया है, तथापि विरक्त पुरुषों के लिए तो ये मांस की गांठें ही हैं। इनके अनेकविध चित्त अर्थात् अनेक मानसिक संकल्प होते हैं, अथवा ये अनेक पुरुषों की चाहना का स्थान हैं, या जिनका अनेक पुरुषों में चित्त रहता है, ऐसी स्त्रियों में विचारशील प्राणी को कभी आसक्त नहीं होना चाहिए। ये स्त्रियां अनेक श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 297 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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