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लोभी जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, इसलिए यह आत्मा दुष्पूर है, अर्थात् इसकी तृप्ति होनी अत्यन्त कठिन है।
टीका—इस गाथा में तृष्णा की दुष्पूरता का वर्णन किया गया है। यदि सारे संसार की धन-धान्यादि सामग्री से भी मनुष्य को सन्तुष्ट करना चाहें तो भी इसका सन्तुष्ट होना कठिन है। यदि कोई महासमृद्धि शाली सुरेन्द्र आदि देवता किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के उद्देश्य से सारे विश्व की विभूति भी उसे दे डाले तो भी लोभ-ग्रस्त आत्मा की सन्तुष्टि में कुछ न्यूनता रह ही जाती है, वह उससे भी अधिक की इच्छा करने लगता है।
तात्पर्य यह है कि आत्मा को लगा हुआ यह तृष्णा रूपी रोग इन सांसारिक पदार्थरूप औषधियों के द्वारा कभी शान्त नहीं हो सकता। इसकी औषध तो एक सन्तोष ही है, अतः यह आत्मा बाह्य पदार्थों के लाभ से कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। कहा भी है
न वह्निस्तृणकाष्ठेषु, नदीभिर्वा महोदधिः । ....
न चैवात्माऽर्थसारेण, शक्यस्तर्पयितुं क्वचित् || अर्थात्-जिस प्रकार अग्नि तृण-काष्ठ आदि से तृप्त नहीं होती और समुद्र नदियों से तृप्त नहीं होता उसी प्रकार यह आत्मा भी धन आदि बाह्य पदार्थों से कभी तृप्ति को प्राप्त नहीं होती। इसलिए अपनी आत्मा को सन्तुष्ट करने की इच्छा रखने वाले मुमुक्षु को ज्ञान की आराधना करनी चाहिए। ज्ञान-शक्ति ही आत्मा को सर्वथा सन्तुष्ट कर सकती है।
'इक्कस्स' यह चतुर्थी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग है। यह आत्मा संसार के पदार्थों से क्यों सन्तुष्ट नहीं होता, अब इस विषय पर विचार करते हैं
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवढई । दोमासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ १७ ॥
यथा लाभस्तथा लोभः, लाभाल्लोभः प्रवर्धते ।
द्विमाषकृतं कार्य, कोट्याऽपि न निष्ठितम् || १७ ॥ पदार्थान्वयः–जहा—जिस प्रकार, लाहो–लाभ होता है, तहा—उसी प्रकार, लोहो-लोभ बढ़ जाता है, लाहा–लाभ से, लोहो—लोभ, पवड्ढई—बढ़ता है, दोमासकयं—दो मासे सुवर्ण से होने वाले, कज्जं—कार्य, कोडीए वि-करोड़ों से भी, न निट्ठियं निष्ठित अर्थात् निष्पन्न नहीं हुए। ____ मूलार्थ जैसे-जैसे लाभ होता जाता है, वैसे-वैसे उसके साथ लोभ बढ़ता जाता है, क्योंकि लाभ से लोभ बढ़ता है, अतः दो मासे स्वर्ण से होने वाले कार्य करोड़ों से भी निष्पन्न न हो सके।
टीका—इस गाथा में भगवान कपिल केवली ने अपने निजी वृत्तान्त का उदाहरण देकर आत्मा की दुष्पूर्यता अर्थात् अतृप्ति का अच्छा चित्र खींचा है। लाभ से लोभ उत्पन्न होता है, अर्थात् जैसे-जैसे लाभ होता जाता है, वैसे-वैसे लोभ की मात्रा में अधिकता होती जाती है। उदाहरण के लिए जैसे कपिल केवली। जैसे दासी का कार्य मात्र दो मासे सोने से भली-भांति हो सकता था, परन्तु
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 296 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं