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________________ को, बोही—धर्म की प्राप्ति, सुदुल्लहा – अति दुर्लभ, होइ — होती है, तेसिं— उनको जिन्होंने धर्म - विपरीत क्रियाएं की हैं। मूलार्थ-वे जीव जिन्होंने उक्त क्रियाओं का अनुष्ठान किया है असुर-कुमारों से निकल कर असीम संसार में परिभ्रमण करते हैं । कर्मों के लेप के अधिक लिप्त होने पर उनको पुनः जिन-धर्म की प्राप्ति बहुत दुर्लभ हो जाती है । टीका - उक्त प्रकार की लक्षण- स्वप्नादि लौकिक विद्याओं का उपयोग करने वाले जीव असुर-कुमारों से निकल कर चौरासी लाख जीव - योनियों में बहुत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। उनकी आत्मा पर कर्मों का अधिक लेप रहता है इसलिए उनको अत्यन्त दुर्लभ इस बोधि-धर्म की प्राप्ति का होना बहुत कठिन हो जाता है । इसका तात्पर्य यह है कि लक्षण आदि विद्याओं के प्रयोग से उत्तर गुणों की विराधना होती है और उत्तरगुणों की विराधना से असुर- कुमारों में उत्पन्न हो कर फिर संसार में भ्रमण करना पड़ता है । इस अवस्था में उनको संसार के अन्यान्य पदार्थों की तो प्राप्ति हो जाती है, परन्तु सत्पथ के प्रदर्शक जैन-धर्म की प्राप्ति का होना कठिन हो जाता है। मुमुक्षु पुरुष को उत्तरगुणों की शुद्धि का अवश्य ध्यान रखना चाहिए जिससे कि संसार - परिभ्रमण का कारण नष्ट हो सके। जब इस प्रकार चारित्र की शुद्धि के लिए प्रयत्न किया जाएगा तब इस जीव को यथार्थ बोध की प्राप्ति हो जाएगी तथा कर्मों के प से रहित होकर यह आत्मा संसार के बन्धनों से जल्दी ही छूट जाएगी । - अब यहां पर यह प्रश्न होता हैं कि जब उन्होंने संसार का सम्बन्ध ही छोड़ दिया तो फिर वे उक्त प्रकार की लक्षणादि विद्याओं का प्रयोग ही क्यों करते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वे उक्त प्रकार की क्रियाओं का अनुष्ठान केवल यश-कीर्ति और मान- बड़ाई आदि के लोभ से करते हैं, उनकी आत्मा लौकिक मान-बड़ाई के लोभ के प्रति आकर्षित रहती है। अब उनकी आत्मा-सम्बन्धी असन्तुष्टता के विषय में कहते हैं— कंसिणंपि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तणाव से संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया || १६॥ कृत्स्नमपि य इमं लोकं, प्रतिपूर्णं दद्यादेकस्मै । तेनापि स न संतुष्येत् इति दुष्पूरकोऽयमात्मा ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः—–—कसिणंपि— संपूर्ण भी, इमं - यह, लोयं—लोक, पडिपुण्णं - धन-धान्यादि से भरा हुआ, जो-जो सुरेन्द्रादि, दलेज्ज — दे दें, इक्कस्स – किसी एक को, तेणावि – उससे भी, से - वह, ण संतुस्से – सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, इइ – इस प्रकार, दुप्पूरए – दुखों से पूर्ण करने योग्य है, इमे – यह, आया— आत्मा । मूलार्थ-धन-धान्य से भरा हुआ सम्पूर्ण लोक भी यदि सुरेन्द्र आदि किसी को दे दें तो इससे भी श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 295 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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