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________________ इह जीवियं अणियमेत्ता, पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जन्ति आसुरे काए ॥ १४ ॥ इह जीवितं अनियम्य, प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः | ते कामभोगरसगृद्धाः उपपद्यन्ते आसुरे काये ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः – इह —–— इस मनुष्य जन्म में, जीवियं - जीवितव्य को, अणियमेत्ता - बिना वश किए, पब्मट्ठा - भ्रष्ट होकर, समाहिजोगेहिं— समाधि योगों से, ते–वे, काम - भोग- कामभोग, रस — रसों में, गिद्धा – गृद्धा, आसुरे – आसुर, काए — काय में, उववज्जंति – उत्पन्न होते हैं । मूलार्थ — काम - भोग और रसों में मूर्च्छित होते हुए भी वे उक्त साधु इस मनुष्य जन्म में असंयमी जीवन को वश किए बिना समाधि-योगों से भ्रष्ट होकर असुर कुमारों में उत्पन्न होते हैं। टीका – जिन जीवों ने साधु- वृत्ति को ग्रहण करके भी अपने असंयमी जीवन को बारह प्रकार के तप के द्वारा वश में नहीं किया वे काम-भोगों के रस में मूर्च्छित होते हुए समाधि-योगों से सर्वथा भ्रष्ट होकर असुरकाय में उत्पन्न होते हैं । इस कथन का अभिप्राय यह है कि जिन मनुष्यों ने मन, वचन और काया के योगों को तप-संयम के द्वारा वश में नहीं किया उनकी आत्मा इसी कारण से अनियन्त्रित रहती है तथा जो समाधि मार्ग से पतित हो रहे हैं, वे यत्- किंचित् तपोऽनुष्ठान के बल से असुरकुमारों की श्रेणी में उत्पन्न हो जाते हैं, यदि उनका आत्मा तप और संयम के द्वारा भली- भान्ति नियन्त्रित होता है तब वे सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने पर मोक्ष में जाते हैं, अथवा कुछ शेष कर्म रहने पर कल्पादि देवलोकों में उच्चकोटि के देव बनते हैं, परन्तु इसके विपरीत जिन्होंने असंयमी जीवन की वृद्धि की होती है वे उच्चकोटि के देव नहीं बन पाते, क्योंकि संयम धारण करने पर भी उनकी रुचि काम-भोगों के रसास्वादन में ही लगी रहती है और इसी हेतु से वे अपने समाधि-मार्ग से गिर जाते हैं, उनमें चित्त की निराकुलता का अंश बिल्कुल नहीं रहता, अतएव साधु जीवन की क्रियाओं में उनकी शिथिलता बढ़ जाती है। आत्म-ध्यान का नाम समाधि है, अस्तु अब असुर- कुमारों से च्युत होने पर उनको जिस फल की प्राप्ति होती है उसके विषय में कहते हैं— तत्तोऽवि य उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियडन्ति । बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ १५ ॥ ततोऽपि च उद्वृत्य, संसारं बहुमनुपर्यटन्ति । बहुकर्मलेपलिप्तानां, बोधिर्भवति सुदुर्लभा तेषाम् ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः–तत्तोऽवि – वहां से भी, उवट्टित्ता — निकल करके, बहुं— बहुत, संसारं - संसार में, अणुपरियन्ति - परिभ्रमण करते हैं, य-और, बहु — बहुत, कम्मलेवलित्ताणं - कर्म - लेप से लिप्तों श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् 294 / काविलीयं अट्ठम अज्झयणं.
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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