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• ये लक्षणं च स्वप्नं च, अंगविद्यां च ये प्रयुञ्जन्ति |
न खुल ते श्रमणा उच्यन्ते, एवमाचार्यैराख्यातम् ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-जे–जो, लक्खणं लक्षण, च—और, सुविणं स्वप्न, अंगविज्जं—अंगविद्या का, च—(पादपूरणार्थ में), जे–जो, पउंजंति—प्रयोग करते हैं, ते—वे, हु—निश्चय ही, समणा–साधु, न वुच्चंति—नहीं कहे जाते, एवं इस प्रकार, आयरिएहिं—आचार्यों ने, अक्खायं—कहा है। ____ मूलार्थ जो साधु लक्षण-विद्या, स्वप्न-विद्या, तथा अंगस्फुरण-विद्या का प्रयोग करते हैं वे निश्चय ही साधु नहीं कहे जाते, ऐसा आचार्यों ने प्रतिपादन किया है।
टीका—इस गाथा में साधु को सामूहिक, स्वप्न और अंगस्फुरण आदि लौकिक शास्त्रों के उपयोग का निषेध किया गया है। यदि साधु इनका प्रयोग करता है तो शास्त्रकारों की दृष्टि से वह साधु नहीं है, क्योंकि वह तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध आचरण कर रहा है, इसलिए संयमशील साधु इन विद्याओं का कभी प्रयोग न करे।
लक्षणविद्या स्त्री-पुरुषों के लक्षणों अर्थात् चिन्हों को देखकर उनका वर्णन करना, यथा— 'पद्म, वज्रांकुश, छत्र, शंख, मत्स्यादयस्तले पाणिपादेषु दृश्यन्ते यस्यासौ श्रीपतिर्भवेत्' अर्थात् जिसके हाथों
और पैरों में पद्म, वज्र, अंकुश, छत्र, शंख और मत्स्यादि के चिह्न हों वह लक्ष्मी का पति होता है, इत्यादि।
स्वप्नविद्या स्वप्न का शुभाशुभ कहना, यथा— 'दहि छत्त हेम चामर वन्न-फलं च दीव तंबोलं संख ज्झायाय वसहो दिट्ठो धणं देइ। पढमंमि वास फलया बीए जामंमि होति छम्मासा। तइयमित्तिमा सफला चरमेसयज्ज फला होति—अर्थात् स्वप्न में दही, छत्र, स्वर्ण, चामर, फलयुक्त वृक्ष, दीपक, ताम्बूल, शंख, ध्वजा और वृषभादि के देखने से धन की प्राप्ति होती है, इत्यादि। तथा—रात्रि के प्रथम प्रहर में देखा हुआ स्वप्न एक वर्ष में फल देता है, दूसरे प्रहर में देखा हुआ छः मास में, तीसरे प्रहर का स्वप्न तीन मास में और चौथे प्रहर में देखा हुआ स्वप्न तत्काल फल देने वाला होता है।
- अंगविद्या-शरीर के अंगों के स्फुरण का शुभाशुभ फल कथन करना, जैसे—'सिर फुरणे किर रज्जं, पियमेलो होइ बाहु फुरणंमि। अच्छि फुरणंमि य पियं, अहरे पियसंगमो होइ' अर्थात् सिर के फरकने से राज्य की प्राप्ति होती है, भुजाओं के फरकने से प्रिय का मिलाप होता है, आंखों के फरकने से प्रिय वस्तु के दर्शन होते हैं और अधरों के स्फुरण से प्रिया का समागम होता है, इत्यादि। इन उक्त प्रकार की लौकिक विद्याओं का प्रयोग करने वाला साधक साधु-धर्म से सर्वथां बाहर माना जाता है, अतः इन कर्मों से साधु को सर्वथा पृथक् रहना चाहिए। ___. उक्त क्रियाओं का अनुष्ठान करने वाले को किस फल की प्राप्ति होती है अब इस विषय में कहते हैं
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 293 | काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं