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मूलार्थ — नीरस आहार, शीत आहार, पुराने कुल्माषों का आहार, अर्थात् दले हुए एवं भुने हुए मूंग-उड़द आदि पदार्थों का आहार, असार आहार, बदरी (बेर) फलों के चूर्ण का आहार आदि का संयम - निर्वाह के लिए सेवन करे ।
टीका- - इस गाथा में संयम - शील साधु को किस प्रकार का आहार करना चाहिए, इस बात का वर्णन बड़ी सुन्दरता से किया गया है । यथा - साधु का जो आहार हो वह नीरस अर्थात् रूक्ष हो, कारण कि स्निग्ध आहार के सेवन से मोहनीय कर्म का शीघ्र उदय होता है, इसीलिए साधु को अन्त और प्रान्त आहार करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त साधु शीत- पिंड का आहार करे, क्योंकि उष्ण आहार भी प्रायः बाधा कारक एवं उत्तेजक ही होता है। बहुत काल के पुराने कुल्माषादि धान्य नीरस हो जाते हैं, अतः उन कुल्माषादि पदार्थों का साधु को आहार करना चाहिए। अथवा साधु बुक्कस आहार का सेवन करे । जिस धान्य का रस निकाल लिया हो, उसे बुक्कस कहते हैं, अथवा मूंग और उड़द आदि एकत्रित किए हुए पदार्थों का आहार करे, अर्थात् निस्सार पदार्थों का सेवन करे एवं बदरी फल अर्थात् बेर के चूर्ण का आहार करे, क्योंकि वह भी नीरस हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि साधु को स्निग्ध और स्वादिष्ट भोजन नहीं करना चाहिए तथा वह आर केवल संयम - यात्रा के निर्वाहार्थ ही करना चाहिए और वह भी रागद्वेष के भाव से रहित होकर ही करना उचित होता है।
यहां पर इतना स्मरण रहे कि आहार - विषयक यह जो कुछ भी लिखा गया है वह सब उत्सर्ग मार्ग को लेकर तथा जिन- कल्प को लेकर लिखा गया है। आपवादिक अवस्था में तो उक्त प्रकार के आहार से यदि साधु की संयम - यात्रा में किसी प्रकार का विघ्न उपस्थित हो, अथवा वायु आदि के किसी रोग का उपद्रव दिखाई पड़ता हो, तो साधु उष्ण और स्निग्ध आहार का भी सेवन कर सकता है। स्थविर-कल्पी साधु के लिए संयम - यात्रा के निमित्त इन स्निग्ध आदि पदार्थों का सेवन, अपवाद मार्ग को लेकर दोष-प्रद नहीं होता, किन्तु जो जिनकल्पी है उसके लिए तो उक्त प्रकार के नीरस पदार्थों के आहार का ही विधान है, कारण यह है कि जिनकल्पी के लिए स्निग्ध आहार का सर्वथा निषेध है।
इस प्रकार उक्त गाथा में ध्वनि रूप से जिनकल्पी और स्थविरकल्पी के स्वरूप का भी वर्णन आ जाता है, परन्तु इन दोनों ही कल्पों में एषणा - समिति की तो पूर्ण आवश्यकता रहती है, इसलिए संयम-शील साधु को एषणा समिति के विषय में पूर्ण रूप से सावधान रहना चाहिए ।
अब शास्त्र विहित साधु-चर्या के विरुद्ध आचरण करने वालों के विषय में कहते हैं— जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे पउंजंति । न हु ते समणा वुच्चंति, एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥ १३ ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 292 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं