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________________ भिक्खू–साधु, अप्पाणं—आत्मा को, ठवेज्ज–स्थापित करे, जायाए–संयम-यात्रा के लिए, घासं—ग्रास की, एसेज्जा—गवेषणा करे, भिक्खाए–साधु, रसगिद्धे रस में मूर्छित, न सिया–न हो, णं-वाक्यालंकार में है। मूलार्थ—साधु शुद्ध एषणा को जानकर उसी में अपनी आत्मा को स्थापित करे और संयम-यात्रा के निर्वाहार्थ ही ग्रास की गवेषणा करे, परन्तु मुनि को चाहिए कि वह रसों में मूर्च्छित न हो। इस गाथा में साधु की एषणा-समिति का वर्णन किया गया है। जैसे कि उद्गमन और उत्पादन आदि जो दोष हैं उनसे रहित शुद्ध भिक्षा को जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थित करे अर्थात् दोष-रहित भिक्षा का ग्रहण करे और उस निर्दोष भिक्षा का ग्रहण भी केवल संयम-निर्वाहार्थ ही करे, किन्तु शरीर को पुष्ट और बल-वीर्य युक्त बनाने के लिए आहार का ग्रहण न करे। शुद्ध निर्दोष आहार के मिल जाने पर भी साधु उसके स्वादिष्ट रस आदि में मूर्छित भी न हो, किन्तु जैसे शकट के धुरा को भली-भांति चलने के लिए तेल आदि चिकने पदार्थों को लगाते हैं और व्रण आदि पर किसी औषधि विशेष का लेप करते हैं उसी प्रकार केवल शरीर को धर्म-साधनार्थ टिकाए रखने के उद्देश्य से स्वल्प आहार करे, अर्थात् मनोहर आहार के मिल जाने पर उसमें आसक्त होता हुआ अधिक आहार न करे। तात्पर्य यह है कि साधु को एषणा-गवेषणा-रसैषणा अर्थात् अहार की शुद्धि को देखना, फिर लेना, फिर खाना इन तीनों में यल रखना चाहिए। इसी प्रकार अन्य उत्तर गुणों के विषय में भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि आहार की शुद्धि होने पर अन्य अशुद्धियां भी ठीक हो सकती हैं। . इसके अतिरिक्त इतना और समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार रस-आसक्ति के त्याग का उपदेश दिया गया है उसी प्रकार रसों के प्रति द्वेष रखने का भी निषेध है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार राग का त्याग करना आवश्यक है उसी प्रकार द्वेष का भी परित्याग कर देना जरूरी है। रस-विषयक आसक्ति के त्यागने के अनन्तर साधु किस प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करे, अब इसके सम्बन्ध में कहते हैं - पंताणि चेव सेवेज्जा, सीयपिंडं पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा, जवणट्ठाए निसेवए मंथु ॥ १२ ॥ प्रान्तानि चैव सेवेत, शीतपिण्डं पुराण-कुल्माषान् । अथ बुक्कसं पुलाकं वा, यापनार्थं निषेवेत मन्थुम् ॥ १२॥ ___पदार्थान्वयः-पंताणि—नीरस आहार, च–प्राग्वत्, इव—पूर्ववत्, सेवेज्जा–सेवन करे, सीयपिंडं—शीत आहार, . पुराण-पुराने, कुम्मासं—कुल्माषों का आहार करे, अदु-अथवा, बुक्कसं—मूंग-उड़द आदि का आहार, वा—अथवा, पुलागं—असार आहार, जवणट्ठाए—संयमयात्रा के निर्वाहार्थ, मंथु—बदरी फलों के चूर्ण को, निसेवए–सेवन करे । | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 291 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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