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________________ 1 गाथा में आए हुए 'मु' पद को 'वयं' के स्थान में ग्रहण करना चाहिए। ऐसा दो वृत्तिकारों का मत है और एक वृत्तिकार इसको ‘स्मः' क्रिया का स्थानापन्न मानते हैं। परन्तु 'वय' के लिए अधिक सम्मतियां हैं और 'मिया-मृगः' शब्द के आगे रहने वाले 'इव' का लोप हुआ है तथा 'मृगा इव मृगाः'। अब सूत्रकार इस विषय में जानने योग्य कुछ और कहते हैं न हु पाणवहं अणुजाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं । एवं आयरिएहिं अक्खायं, जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो ॥ ८॥ न खलु प्राणवधमनुजानन् , मुच्येत कदाचित्सर्वदुःखानाम् | एवमाचार्यैराख्यातं, यैरयं साधुधर्मः प्रज्ञप्तः ॥ ८ ॥ पदार्थान्वयः—पाणवहं—प्राण-वध का, अणुजाणे—अनुमोदन करता हुआ; कयाइ–कदाचित् भी, सव्वदुक्खाणं—सर्व दुखों से, हुनिश्चय ही, न मुच्चेज्ज–नहीं छूटता है, एवं ऐसा, आयरिएहिं—आचार्यों ने, अक्खायं—कहा है, जेहिं—जिन्होंने, इमो—यह, साहुधम्मो साधु धर्म का, पन्नत्तो—प्रतिपादन किया है। मूलार्थ—जिन आचार्यों ने इस साधु-धर्म का वर्णन किया है वे आचार्य कहते हैं कि प्राण-वध की अनुमोदना करने वाला कभी भी दुखों से नहीं छूट सकता। टीका—जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आस्रवों का सेवन करते हैं, दूसरों से कराते हैं और करने वालों का अनुमोदन करते हैं वे शारीरिक और मानसिक दुखों से कदाचित् भी मुक्त नहीं हो सकते । इस प्रकार से साधु-धर्म का प्रतिपादन करने वाले आचार्यों ने कहा है। . ___ पांचों आस्रवों से निवृत्त होना ही साधु-धर्म है, यह आचार्यों का कथन है। इसलिए जहां पर इन पांचों में प्रवृत्ति है वहां पर साधु धर्म भी नहीं है। इस प्रकार साधु-धर्म और असाधु-धर्म दोनों का ही अर्थतः निरूपण हो जाता है तथा दुखों की निवृत्ति का यदि कोई प्रधान कारण है तो वह साधु-धर्म ही है। उसी का सम्यग् अनुष्ठान करने से यह जीव दुखों से मुक्त हो जाता है। यह भाव भी भली भान्ति स्पष्ट हो जाता है। ____ गाथा में आए हुए आचार्य शब्द से सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान का ही ग्रहण अभिप्रेत है, किसी साधारण आचार्य का नहीं, क्योंकि वास्तविक रूप में वे ही धर्म के प्ररूपक अथवा स्थापक हो सकते हैं। यद्यपि कपिलदेव स्वयं भी केवली अर्थात् केवल ज्ञान से युक्त हैं तथापि उन पांच सौ चोरों को प्रतिबुद्ध करने और ज्ञानपद को बहुमान देने के निमित्त से ही ऐसा वर्णन किया गया है तथा 'सव्व-दुक्खाणं' यह तृतीया विभक्ति के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग है। अब साधु-जनोचित कर्त्तव्य का वर्णन करते हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 288 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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