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________________ और जो महासत्त्व वाले तथा धैर्यादि गुणों से युक्त हैं वे इन काम-भोगादि विषयों का त्याग करके अपने संयम के द्वारा इस संसार-समुद्र से इस प्रकार पार हो जाते हैं जैसे जहाज के द्वारा कोई व्यापारी वणिक् समुद्र को पार कर लेता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो कायर व्यक्ति हैं, उनके लिए तो इन विष-मिश्रित मधु रूप काम भोगादि का त्याग करना कठिन है और जो धीर पुरुष हैं वे इनका सहज ही में परित्याग कर सकते हैं। जिस प्रकार एक व्यापारी व्यक्ति समुद्र को पार करने के लिए जहाज का आश्रय लेता है उसी प्रकार धीर पुरुष को इस संसार-समुद्र को पार करने के लिए संयम का सहारा लेना आवश्यक है। इस गाथा में 'व' शब्द 'इव' के अर्थ में है और ‘साहू' (साधु) शब्द, प्राकृत के नियम से बहुवचनान्त (साधवः) समझना चाहिए। तभी गाथा में आए हुए 'संति' इस क्रिया-पद से उसका सम्बन्ध उपयुक्त हो सकता है। अब नाम मात्र के साधुओं के विषय में कहते हैं. समणा मु एगे वयमाणा, पाणवहं मिया अयाणन्ता । मन्दा नरयं गच्छन्ति, बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ॥७॥ श्रमणाः (स्मः) वयम् एके वदन्तः, प्राणवधं मृगा अजानन्तः । मन्दा नरकं गच्छन्ति बालाः, पापिकाभिदृष्टिभिः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः—समणा–साधु, मु—हम हैं, एगे—कुछ, वयमाणा—बोलते हुए, पाणवहं— प्राण-वध को, अयाणंता—न जानते हुए, मिया मृगवत्—अज्ञानी, मंदा—मंद, नरयं—नरक को, गच्छंति—जाते हैं, बाला—अज्ञानी, पावियाहिं—पापकारी, दिट्ठीहिं—दृष्टियों से—अभिप्रायों से। मूलार्थ—'हम साधु हैं' इस प्रकार बोलने वाले, किन्तु प्राण-वध के फल को न जानते हुए मृग की भान्ति अज्ञानी और मूर्ख जीव अपनी पापकारी दृष्टियों से नरक में जाते हैं। ___टीका—कुछ मिथ्या-दृष्टि जीव इस प्रकार बोलते हैं कि 'हम साधु हैं', परन्तु वे प्राण-वध के फल और प्राणियों के स्वरूप के ज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, दुराग्रह रोग से ग्रस्त और विवेक से रहित हैं। इतना ही नहीं, अपितु उनकी आत्माएं पापमयी प्रवृत्तियों से सर्वथा मलिन हो रही हैं। इसी कारण वे नरक-गति की यात्रा के लिए अपने आपको प्रस्तुत कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में प्राणियों की हिंसा करना दोषावह नहीं है, अतएव वे 'ब्रह्मणे ब्राह्मणमिन्द्राय क्षत्रियं मरुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूद्रमालभेत्' इत्यादि वैदिक वाक्यों के द्वारा अपनी पापमयी प्रवृत्ति का समर्थन करते हुए अपने आपको साधु कहलाने का यत्न करते हैं। वास्तव में देखा जाए तो उनकी यह जघन्य हिंसक प्रवृत्ति उनको साधुता की कोटि से बहुत नीचे गिरा रही है। ★ ब्रह्मा के लिये ब्राह्मण का, इन्द्र के लिए क्षत्रिय का, मरुत् के लिए वैश्य का और तप के लिए शूद्र का वध करे। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 287 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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