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________________ कठिन हो जाता है उसी प्रकार इस पामर जीव का भी कर्मों के जाल से निकलना अत्यन्त कठिन हो जाता है। हिताहित के ज्ञान से शून्य जीव को बाल कहते हैं, एवं धर्म के अनुष्ठान में उद्योग - शून्य व्यक्ति मन्द या मन्दमति कहलाता है तथा धर्म से उपरति और अधर्म में प्रीति रखने वाला जीव मूढ कहलाता है। रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्शादि विषय आमिष रूप हैं, अर्थात् मांस के समान हैं। जैसे मांसाहारी को अन्य भोज्य पदार्थों की अपेक्षा मांस अधिक प्रिय होता है, उसी प्रकार विषयी व्यक्ति को अन्य धर्म कार्यों की अपेक्षा शब्द-स्पर्शादि विषय-भोग विशेष प्रिय होते हैं। इसी अभिप्राय को लेकर सूत्रकार ने उक्त गाथा में 'भोगामिष' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे कि विषय-भोगों और मांस में समानता का बोध सुगमता से हो सके। जैसे मांसाहारी की बुद्धि में तमोगुण की प्रधानता के कारण विपरीतता आ जाती है, उसी प्रकार विषयभोगानुरागी व्यक्ति भी बुद्धि-विपर्यय को प्राप्त कर लेता है, जिसके कारण उसे मोक्ष के विषय में विपरीत ज्ञान ही रहता है । सारांश यह है कि यह सब कुछ विषय-भोगानुरक्ति की विलक्षण शक्ति का ही प्रभाव है जो कि मुमुक्षु जनों के लिए सर्वथा त्याग कर देने योग्य है, परन्तु इसका त्याग करना सहज नहीं है। अब इसके त्याग की कठिनता के विषय में कहते हैं दुष्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं । अह सन्ति सुव्वया साहू, जे तरन्ति अतरं वणिया वा ॥ ६ ॥ दुष्परित्यजा इमे कामाः, नो सुत्यजा अधीरपुरुषैः । अथ सन्ति सुव्रताः साधवः, ये तरन्त्यतरं वणिज इव ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः—–—दुष्परिच्चया - दुख से त्यागे जाते हैं, इमे — ये, कामा, काम-भोग, नो— नहीं, सुजहा - सुत्यज्य, अधीरपुरिसेहिं— अधीर पुरुषों के द्वारा, अह — अथ, सुव्वया — सुव्रती, साहू — साधु, संति—हैं, जे—जो, तरंति — तैरते हैं, अतरं—दुस्तर, वणिया – वणिक् की, व — तरह (समुद्र को ) । मूलार्थ — ये काम - भोग दुस्त्यज्य हैं, अतः ये अधीर पुरुषों के द्वारा आसानी से त्यागे नहीं जा सकते। जो सुव्रती साधु हैं वे धनाढ्य वणिक की तरह इस विषय रूप समुद्र को तैर जाते हैं । टीका—ये काम-भोग अधीर पुरुषों से सुख-पूर्वक त्यागे नहीं जा सकते, इसलिए ये दुस्त्यज्य हैं। तथा जो शुद्ध वृत्तियों वाले अर्थात् सुन्दर आचार वाले साधु जन हैं वे इस विषय भोग रूप दुस्तर संसार-समुद्र को इस प्रकार तैर जाते हैं जिस प्रकार व्यापारी — वणिक् जहाज के द्वारा समुद्र को तैर जाता है। इस कथन यह सिद्ध हुआ कि जो जन अल्पसत्त्व वाले हैं उनके लिए ये काम - भोग दुस्त्यज्य हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 286 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं .
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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