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________________ लोभ को कर्म-बन्ध का हेतु जानकर छोड़ दे। तथा सर्व प्रकार के रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श आदि विषयों के कटु परिणामों को देखता हुआ उनका भी परित्याग कर दे। इस प्रकार दुर्गति से आत्मा की रक्षा करने वाला भिक्षु कर्मों से कभी लिप्त नहीं होता। 'त्रायी' शब्द का अर्थ है दुर्गति से आत्मा की रक्षा करने वाला। 'त्रायते रक्षति आत्मानं दुर्गतेरिति त्रायी' यहां पर तथाविध शब्द से कर्मबन्ध के हेतुभूत परिग्रह के त्याग का जो उपदेश दिया गया है, उसमें साधु के उपकरणों का समावेश नहीं है, क्योंकि साधु के उपकरण किसी प्रकार का परिग्रह नहीं हैं, वे तो धर्म-साधन के कारण हैं, अर्थात् धर्म-साधना के अत्यन्त साधक हैं। वस्तु की हेयोपादेयता के विषय में उसके फलाफल का विचार होना अत्यन्त आवश्यक है। इसी अभिप्राय से गाथा में 'पासमाणो—प्रेक्ष्यमाणः' शब्द का उल्लेख किया गया है। जो जीव ग्रन्थ आदि को नहीं छोड़ते, किन्तु उनमें अनुरक्त ही रहते हैं, अब उनकी दशा का वर्णन करते हैं भोगामिसदोसविसण्णे, हियनिस्सेयसबुद्धि वोच्चत्थे । बाले य मन्दिए मूढे, बज्झइ मच्छिया व खेलंमि ॥ ५ ॥ भोगामिषदोषविषण्णः, हित निःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः । बालश्च मन्दो मूढः, बध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि || ५ ॥ पदार्थान्वयः-भोगामिस–भोगं रूप आमिष, दोस—वही दोष—उसमें, विसण्णे निमग्न, हिय-हित, निस्सेयस—मोक्ष-उसमें, बुद्धि-बुद्धि, वोच्चत्थे विपरीत, बाले–अज्ञानी, य—और, मंदिए—मन्द, मूढे—मूढ, मच्छिया मक्षिका की, व-तरह, खेलंमि–श्लेष्म में, नाक और मुख के मल में, बज्झइ–बन्ध जाता है। . मूलार्थ भोग-रूप आमिष अर्थात् दोषों में निमग्न हित और मोक्ष के विषय में विपरीत बुद्धि रखने वाला अज्ञानी, मन्द और मूर्ख जीव श्लेष्म में फंसने वाली मक्षिका की भान्ति कर्म-जाल में बंध जाता है। - टीका-विषय-भोग रूप आमिष आत्मा के लिए अहितकर होने से अत्यन्त दोष रूप है। उसमें आसक्त होने वाला आत्मा भी दुष्ट हो जाता है, अतएव विषय-भोगों में निमग्न रहने वाला जीव अत्यन्त बाल अर्थात् मूर्ख और महा जड़ है। उसको अपने हिताहित का कुछ भी भान नहीं होता, इसीलिए वह शास्त्रकारों के हित-मित वचनों में और मोक्ष के विषय में विपरीत विचार रखने वाला होता है। विषय-भोगों में प्रचुर आसक्ति रखने से उसकी वही दशा होती है, जो कि दुर्गन्ध में आसक्त होने में श्लेष्म में फंसी हुई मक्षिका की होती है, अर्थात् जैसे वह मक्षिका श्लेष्म की दुर्गन्ध से आकर्षित होकर वहां जाकर फंस जाती है, ठीक उसी प्रकार राग-द्वेष के कारण विषय-भोगों से खिंचा हुआ यह जीव भी कर्मों के जाल में फंस जाता है एवं उस श्लेष्म से जैसे मक्षिका के लिए वहां से निकलना श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 285 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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