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टीका केवल-ज्ञानी, केवल-दर्शी और विगत-मोह मुनिप्रवर कपिल ने सर्व-जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा उन पांच सौ चोरों के कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए इस प्रकार से उपदेश दिया।
इस प्रकरण से मुनिवर शब्द के साथ जो 'विगतमोह' विशेषण दिया गया है उसका तात्पर्य उनमें यथाख्यात चारित्र का बोधन कराना है, अथवा केवलज्ञान-युक्त वीतरागता के प्रतिपादन से उनमें आप्तता या उनके इस उपदेश को आप्तोपदेश सिद्ध करना है। ____ 'हित' शब्द यद्यपि द्रव्य अर्थ में ही प्रायः आता है, परन्तु यहां पर तो वह भावरूप में आरोग्यादि के लिए ही गृहीत हुआ है। जिस समय कोई पवित्र आत्मा किसी भव्य जीव को उपदेश देने के लिए प्रवृत्त होता है तो उस समय उसकी आत्मा में उपदिश्यमान जीव के हित और कल्याण की भावना ही जागृत होती है।
__ प्राकृत भाषा में यद्यपि चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग होता है, तथापि तादर्थ्य में चतुर्थी के एक वचन का प्रयोग भी किया जाता है, जैसे इसी गाथा में 'निस्सेसाए' 'विमोक्खणट्ठाए' ये चतुर्थी के एकवचनान्त प्रयोग दिए गए हैं, परन्तु चतुर्थी के बहुवचन के स्थान पर तो षष्ठी का बहुवचन ही आता है।
इसके अतिरिक्त उक्त गाथा में उपदेष्टा मुनि के विशेषणों द्वारा जो ऊपर गुण वर्णन किए गए हैं उनका अभिप्राय उक्त उपदेश को केवली भगवान् का उपदेश प्रमाणित करना है। अब भगवान् कपिल केवली के उपदेश का वर्णन करते हैं
सव्वं गंथं कलहं च, विप्पजहे तहाविहं भिक्खू । सव्वेसु कामजाएसु, पासमाणो न लिप्पई ताई ॥ ४॥
सर्वं ग्रन्थं कलहं च, विप्रजह्यात् तथाविधं भिक्षुः ।
सर्वेषु कामजातेषु, प्रेक्ष्यमाणो न लिप्यते त्रायी ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-सव्वं—सब, गंथं–धन, कलहं—कलह क्रोध आदि, च—और, विप्पजहे-छोड़ दे, तहाविहं—तथाविध कर्म-बन्ध का हेतु, भिक्खू–साधु, सव्वेसु-सभी, कामजाएसु–कर्मजात में, पासमाणो देखता हुआ, ताई आत्मा की रक्षा करने वाला, न लिप्पई–लिप्त नहीं होता।
मूलार्थ सर्व प्रकार के धन और कलह आदि को कर्मबन्ध का हेतु जानकर साधु उसे छोड़ दे, क्योंकि सर्व प्रकार के काम-भोगों के कटु परिणाम को देखने वाला आत्म-रक्षक साधु कर्मों से लिप्त नहीं होता।
टीका—भगवान कपिल ने कर्मों से छूटने का यह उपाय बताया है कि भिक्षु सर्व प्रकार के आभ्यन्तर और बाह्य धन को तथा मिथ्यात्व आदि आन्तरिक परिग्रह को एवं क्रोध, मान, माया और
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 284 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं