________________
पदार्थान्वयः – विजहित्तु — छोड़कर, पुव्वसंजोगं- पूर्व संयोग को फिर, सिणेहं स्नेह, कहिंचि - किसी वस्तु में भी, न कुव्वेज्जा न करे, असिणेह - स्नेह - रहित, सिणेहकरेहिं – स्नेह करने वालों में, दोस—दोष और, पओसेहिं – प्रदोषों से, भिक्खू – साधु, मुच्च — छूट जाता है ।
मूलार्थ - साधु पूर्व संयोगों को छोड़कर फिर कहीं पर भी स्नेह न करे, स्नेह करने वालों में स्नेह-रहित होकर दोष और प्रदोषों से साधु छूट जाता है।
टीका - उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कपिल मुनि कहते हैं कि माता-पिता और स्त्री-पुत्र आदि के सम्बन्ध को छोड़कर अर्थात् छोड़ देने के बाद साधु फिर किसी वस्तु पर भी स्नेह न करे, किन्तु जो स्नेह करने वाले गृहस्थ लोग हैं उनमें भी स्नेह रहित होकर विचरने वाला साधु सम्बन्धी जनों के वियोग से मन में उत्पन्न होने वाले दुख -सन्ताप आदि से तथा परलोक में दुर्गति को प्राप्त करने से उत्पन्न होने वाले सभी कष्टों से छूट जाता है।
संसार में इस जीव को जितने भी कष्ट होते हैं उन सब कष्टों का मूल कारण स्नेह है, इसलिए भिक्षु को सांसारिक सम्बन्धों का विच्छेद कर देने के बाद फिर किसी वस्तु में भी स्नेह नहीं रखना चाहिए और स्नेह का परित्याग कर देने के बाद भिक्षु को इस लोक तथा परलोक में किसी प्रकार का भी दुख नहीं होगा, किन्तु वह दोष-प्रदोष रूप सर्व प्रकार के दुखों से मुक्त हो जाता है।
तब इस उत्तर का सारांश यह निकला कि दुर्गति से बचने के लिए स्नेह का परित्याग करना परम आवश्यक है, क्योंकि स्नेह के कारण से ही यह जीव दुर्गति में ले जाने वाली अशुभ क्रियाओं का अनुष्ठान करता है, अतः सिद्ध हुआ कि स्नेह-रहित जो कर्मानुष्ठान है वही दुर्गति से इस जीव को बचाने वाला है ।
अब फिर इसी विषय का सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं
तो नाणदंसणसमग्गो, हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं । तेसिं विमोक्खणट्ठाए, भासइ मुणिवरो विगयमोहो ॥ ३ ॥ ततो ज्ञानदर्शनसमग्रः, हित निःश्रेयसाय सर्वजीवानाम् ।
तेषां विमोक्षणार्थं, भाषते मुनिवरो विगतमोहः ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः – तो — तदनन्तर, नाण – ज्ञान, दंसण – दर्शन, समग्गो— समग्र — संयुक्त,
हिय — हित, निस्सेसाए - मोक्ष के लिए, सव्वजीवाणं - सब जीवों को— तथा, तेसिं— उन चोरों को, विमोक्खणट्टाए - मोक्ष के वास्ते, मुणिवरो – मुनिश्रेष्ठ केवली भगवान्, विगयमोहो — विगतमोह हैं, भास — कहते हैं।
मूलार्थ -- तदनन्तर वे मुनि-प्रवर कपिल केवली जो केवल - ज्ञान और केवल दर्शन वाले और मोह. से रहित हैं, सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तथा उन पांच सौ चीरों के प्रतिबोध के लिए इस प्रकार कहने लगे ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् 283 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं