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________________ के प्रति गाकर सुनाया था, उन्हीं का उल्लेख किया जाता है। काविलियं अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार है अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोग्गइं न गच्छेज्जा ॥ १ ॥ अध्रुवेऽशाश्वते, संसारे दुखप्रचुरे । किं नाम तद्भवेत्कर्मकं, येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम् || १ || पदार्थान्वयः-अधुवे-अध्रुव, असासयंमि—अशाश्वत, संसारंमि–संसार में, दुक्खपउराएदुःख-प्रचुर में, तं—वह, किं नाम—कौन-सा, कम्मयं-कर्म, होज्ज होता है, जेण—जिससे, अहं—मैं, दोग्गइं—दुर्गति को, न गच्छेज्जा—न जाऊं। ___ मूलार्थ—इस अध्रुव, अशाश्वत और दुख-बहुल संसार में ऐसा कौन-सा कर्म है—कौन सा क्रियानुष्ठान है जिससे कि मैं दुर्गति में न जाऊं? टीका—जिस समय पांच सौ चोरों की टोली भगवान् कपिल के सामने धर्म-गीत सुनने को बैठ गई तब उन्होंने उनकी ओर लक्ष्य करके इस प्रकार से उपदेश देना आरम्भ किया— “यह संसार अध्रुव है, इसमें कोई भी वस्तु सदा स्थिर रहने वाली नहीं है तथा पर्याय रूप से इसकी प्रत्येक वस्तु समय-समय पर उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है, इसलिए यह अशाश्वत है। इसमें शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार के दुख भरे हुए हैं, अतः यह दुख-प्रचुर भी है। तब इस प्रकार 'अध्रुव, अशाश्वत और दुखमय संसार में वह ऐसा कौन-सा क्रियानुष्ठान है कि जिसके अवलम्बन से मैं दुर्गति को न जाऊं?' इसका अभिप्राय यह है कि यह संसार दुखों का घर है और इसमें बहुत दुख भरे पड़े हैं और साथ में यह अस्थिर और विनश्वर भी है। तब वह कौन सा कर्मानुष्ठान है कि जिसके प्रभाव से यह जीव दुर्गति को प्राप्त न हो सके? यद्यपि भगवान् कपिल केवली को न तो कोई संशय है और न वे दुर्गति में जाने वाले हैं, तब यहां पर जो उत्तम पुरुष की क्रिया का प्रयोग किया गया है उसका उद्देश्य उन चोरों को प्रतिबोध देना अब इस उक्त प्रश्न का उत्तर भगवान् कपिल मुनि इस प्रकार देते हैं विजहित्तु पुव्वसंजोगं, न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा | असिणेह सिणेहकरेहिं, दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ॥२॥ विहाय पूर्वसंयोगं न स्नेहं क्वचित् कुर्वीत । अस्नेहः स्नेहकरेषु, दोष प्रदोषेभ्यो मुच्यते भिक्षुः ॥ २ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 282 | काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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