________________
पाणे- य नाइवाएज्जा, से समिए ति वुच्चई ताई । - तओ से पावयं कम्मं, निज्जाइ उदगं व थलाओ ॥ ६ ॥
__प्राणान् यो नातिपातयेत् , स समित इत्युच्यते त्रायी |
। ततोऽथ पापकं कर्म, नियति उदकमिव स्थलात् ||६|| पदार्थान्वयः—पाणे—प्राणों का, नाइवाएज्जा—अतिपात–विनाश न करे, य—और मृषावाद आदि का सेवन न करे, से—वह, समिए त्ति—इस प्रकार समिति वाला, वुच्चई—कहा जाता है, ताई रक्षा करने वाला, तओ—तदनन्तर, से—अथ—उससे, पावयं—पाप, कम्मं—कर्म, निज्जाइ–निकल जाता है, उदगं—उदक, व-जैसे, थलाओ-स्थल से।
मूलार्थ जो व्यक्ति किसी प्राणी का वध न करे और मिथ्या भाषण आदि भी न करे, वह समित अर्थात् समिति वाला' कहलाता है, फिर उससे पाप-कर्म इस प्रकार दूर हो जाता है जिस प्रकार ऊंचे स्थल से पानी चला जाता है। गिर जाता है।
टीका—जो व्यक्ति जीवों का स्वयं घात न करे और दूसरों से न करावे तथा घात करने वालों को भला भी न समझे एवं. इसी प्रकार झूठ और चोरी आदि से भी उपरत रहे, अर्थात् अन्य स्तेय, मैथुनादि का भी त्यागी हो वह जीव समित अर्थात् समिति युक्त होने से त्रायी अर्थात् रक्षक या रक्षा करने वाला हो जाता है, तब उस साधकं जीव से पाप-कर्म ऐसे दूर चले जाते हैं जैसे स्थल से-ऊंचे स्थान से पानी बह जाता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार समिति-युक्त साधक से पाप-कर्म पृथक् हो जाते हैं।
यहां पर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उक्त गाथा में जो केवल पाप कर्मों के पृथक् करने के कारणों का निर्देश किया गया है, उसका तात्पर्य सांसारिक अवस्था में रहे हुए जीवों की धर्म-कार्यों में विशेष रुचि उत्पन्न करने का है, किन्तु मोक्ष-प्राप्ति के लिए तो पुण्य और पाप दोनों के ही क्षय करने की आवश्यकता है, क्योंकि जब तक पूण्य और पाप ये दोनों ही कर्म सर्वथा क्षय नहीं हो जाते, अर्थात् इन दोनों से ही आत्मा पृथक् नहीं हो जाती, तब तक मोक्ष का प्राप्त होना असम्भव है। ___तथा जैसे पाप-कर्मों का अनुष्ठान नरक-गति का हेतु है, उसी प्रकार पुण्य-कर्म का संचय मात्र स्वर्ग-प्राप्ति का साधन है और सांसारिक जनों की जो पाप कर्म में प्रवृत्ति है वह दूर होकर धर्म की
ओर, पुण्य की ओर अभिरुचि बढ़ जाए तथा अन्त में दोनों ही प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से निवृत्त होकर मोक्ष के सुख को प्राप्त कर सकें, इसी अभिप्राय से उक्त उपदेश दिया गया है। जैसे पांचों आस्रव बन्ध के कारण हैं वैसे ही पांचों संवर मोक्ष के हेतु हैं। जब यह जीव संवर और निर्जरा में प्रविष्ट होता है तब इसके पुण्य और पाप-कर्म इस प्रकार बह जाते हैं जैसे ऊंचे स्थान से पानी बह
.
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 289 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं