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प्रातःकाल होते ही उसको न्यायालय में राजा के सामने उपस्थित किया गया। तब राजा ने उसको आधी रात के समय घर से बाहर निकलने का कारण पूछा और अपना पूरा परिचय देने के लिए कहा।
___ कपिल ने राजा की आज्ञा को सुनकर अपना नाम, ग्राम और घर से आधी रात के समय में निकलने का प्रयोजन आदि सारा ही सत्य वृत्तान्त कह सुनाया। कपिल की सारी बातों को सुनकर और उन पर विश्वास करके उसे बन्धनों से मुक्त कर दिया गया तथा उसकी दरिद्रावस्था को देखकर उस पर करुणा प्रकट करते हुए राजा ने कहा कि 'हे ब्राह्मण! तू जो कुछ मांगना चाहता है सो मांग ले । यह सुनकर कपिल ने उत्तर दिया कि 'महाराज ! कुछ सोच-विचार कर ही मागूंगा।'
तब राजा ने कहा कि अच्छा यह समीप में हमारी एक वाटिका है, तुम वहां चले जाओ। वहां जाकर जो कुछ मांगना हो उसके विषय में विचार कर लो ।
राजा के आदेश से कपिल वाटिका में चला गया और एक वृक्ष के नीचे बैठकर मांगने के बारे में निम्नलिखित विचार करने लगा, 'यदि मैं अब दो मासे सोना ही मांगता हूं, तो उससे तो घरवाली के वस्त्र ही मुश्किल से आएंगे। अस्तु, एक हजार मुद्राएं मांग लेता हूं। परन्तु एक हजार मुद्राओं से तो संभवतः घरवाली के आभूषण ही बन सकेंगे। चलो, दस हजार मांम लेते हैं। परन्तु इतने से केवल निर्वाह-मात्र ही हो सकेगा, हाथी-घोड़े आदि तो नहीं रखे जा सकेंगे। तो फिर एक लाख मुद्राएं मांग लेता हूं। परन्तु यह भी पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि हाथी और घोड़ों के साथ सुन्दर महल और दास-दासियों का खाना भी आवश्यक है। इसलिए एक करोड़ मांग लेना चाहिए।'
इत्यादि विचार तरंगों के प्रवाह में बहते हुए कपिल के मन ने एकदम पलटा खाया और प्रबुद्ध होकर वह सोचने लगा—'अहो! तृष्णा की विचित्रता! कहां दो मासे स्वर्ण और कहां यह एक करोड़ मोहर! कितना अन्तर है! फिर भी तृप्ति नहीं। तृष्णे देवी! तुझे बार-बार नमस्कर, बार-बार प्रणाम ! जिस जीव पर तेरी कृपा हो जाती है वह लाखों और करोड़ों का धनी होते हुए भी सदा दरिद्र और कंगाल बना रहता है। धिक्कार है ऐसी तृष्णा-वृद्धि पर !'
कुछ और विचार करने पर उसने सोचा, 'कितनी भयानकता ! कितनी यातना ! दो मासे स्वर्ण के लिए मैंने रात्रि भर कष्ट भोगा, राजकर्मचारियों की भर्त्सनाएं सहीं, राजपुरुषों के द्वारा बांधा गया
और एक चोर की स्थिति में राजसभा में उपस्थित होना पड़ा। इतना कष्ट दो मासे सोना मांगने के उपलक्ष्य में हुआ। यह एक करोड़ मोहरें मांग ली गईं तो न मालूम कितनी कल्पनातीत यातनाएं भोगनी पड़ेगी। यह सब कुछ तृष्णा राक्षसी का ही कौतुक है। धिक्कार है मुझे जो कि मैं एक उत्तम कुल में पैदा होकर एक दासी के जाल में फंसकर इस हीन दशा को प्राप्त हुआ हूं।'
इत्यादि विचार-परम्परा में निमग्न होते हुए कपिल को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। तब उसने वहां पर ही केशों का लोच* करके साधु-वृत्ति को स्वीकार कर लिया और उस समय शासन देवता ने ★ इति भावयन् जातिस्मृत्याबुध्यत, स्वयंकृतलोचनसाधुलिंगं देवतादत्तमग्रहीत् । (सर्वार्थसिद्धि टीका)
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 280 | काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं