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प्रबन्ध कर दिया। अब तो कपिल का विद्याभ्यास आनन्द-पूर्वक होने लगा और पण्डित जी भी उसे निश्चिंत होकर पढ़ाने लगे।
परन्तु कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। कर्मों का लोहा कंगाल से लेकर चक्रवर्ती राजा तक सब को मानना पड़ता है। भावी-वश उस शालिभद्र नाम के सेठ के घर में एक दासी रहा करती थी, परन्तु दासी होने पर भी उसके रूप-लावण्य में प्रकृति ने अपनी ओर से सुन्दरता प्रदान करने में कोई कमी बाकी नहीं रखी थी। इधर कपिल भी युवावस्था में अपने ब्रह्मचर्य के तेज से देदीप्यमान हो रहा था। प्रतिदिन के अधिकाधिकपरिचय से यवक और यवती परस्पर प्रेम-जालमोहजाल में फंस गए। अब तो कपिल विद्यार्थी कपिल नहीं रहा। अब तो उसका पाठ्य विषय पुस्तकगत विषय के बदले दासी के हाव-भावों का चिन्तन ही रह गया। तात्पर्य यह है कि कपिल अपने पठन-पाठन को छोड़कर सर्वदा दासी में ही अपना मानसिक अनुराग रखने लगा।
__कपिल के विद्याभ्यास में आलस्य और उपेक्षा की ओर जब कुछ गम्भीरता से विद्वान् इन्द्रदत्त ने ध्यान दिया तो उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसको तो विद्याव्यसनी कपिल अब दासी-सेवक प्रतीत होने लगा। कपिल की आराध्य देवी अब विद्या नहीं रही, किन्तु वह दासी का पुजारी बना हुआ था।
- गुरु को कपिल के विद्याभ्यास में उपस्थित होने वाले इस भयंकर उत्पात को देखकर बहुत दुख हुआ। उसने कपिल को .बहुत समझाया, बहुत कुछ कहा, परन्तु सब व्यर्थ हो गया, क्योंकि कपिल कामदेव के जिस माया-जाल में फंस गया था उसको तो बड़े-बड़े चतुर और प्रवीण पुरुष भी तोड़ने में असमर्थ ही रहे हैं। इसलिए दासी के त्याग के बदले में कपिल ने विद्याभ्यास को ही तिलांजलि दे दी। ____ कुछ समय व्यतीत होने के बाद दासी गर्भवती हो गई। तब उसने कपिल से कहा कि 'हे स्वामिन् ! अब तो मैं आपकी पत्नी और आप मेरे पति हो गए, क्योंकि मेरे उदर में आपका गर्भ विद्यमान है। अब तो आपको ही मेरे भरण-पोषण का प्रबन्ध करना पड़ेगा।'
__यह बात सुनकर कपिल को बहुत चिन्ता हुई। इसी विचार में उसे रात्रि भर निद्रा नहीं आई। तब दांसी ने कहा कि 'स्वामिन ! तुम चिन्ता मत करो! मैं तुमको एक उपाय बताती हूं।'
इस नगर में एक धनदत्त नाम का सेठ रहता है। वह बड़ा दानी है। उसका एक नियम है कि कोई भी ब्राह्मण प्रातः काल सबसे प्रथम उसके पास जाकर उसको बधाई दे तो वह उसे दो मासे सोना देता है। इसलिए आप प्रातःकाल सबसे पहले उसके पास जाइए और दो मासे सोना वहां से ले आइए।
कपिल ने दासी के इस आदेश को स्वीकार कर लिया और तदनुसार वहां प्रातःकाल जाने की मन में ठान ली, परन्तु दो मासे सोने की लालसा से उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि कोई अन्य ब्राह्मण मेरे से पहले जाकर स्वर्ण न ले आवे। इसलिए वह प्रातःकाल की भ्रान्ति में अर्द्ध रात्रि में ही घर से चल पड़ा। कुछ दूर जाने पर उसको चोर समझकर राजपुरुषों ने पकड़ लिया और रात भर उसको अपने पास रखा।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 279 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं