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एक दिन की बात है कि जब वह राज्य की ओर से लब्धप्रतिष्ठ होकर अपने घर को जो रहा था, तब रास्ते में काश्यप की पत्नी यशा ने उसको देखा। उसकी अद्भुत प्रतिष्ठा को देखकर उसे अपने पिछले ऐश्वर्य का एकदम स्मरण हो उठा और उसके स्मरण होते ही वह फूट-फूटकर रोने लगी।
माता को रोते हुए देखकर कपिल ने पूछा कि 'माता! तुम क्यों रो रही हो?' पुत्र के पूछने पर यशा ने कहा कि 'पुत्र! देख, जिस प्रकार इस समय राज्य में इस ब्राह्मण की प्रतिष्ठा हो रही है उसी प्रकार किसी समय तेरे पिता की भी प्रतिष्ठा होती थी, परन्तु उसके मरने और तेरे अविद्वान्/ मूर्ख रह जाने के कारण तेरे अधिकार में आने वाला यह 'राज-पण्डित का पद' इस ब्राह्मण को मिल गया है। सो मैं अपने पति के अतीत-वैभव का स्मरण करके रोने लगी हूं।"
माता के इन वचनों को सुनकर कपिल ने कहा कि 'माता! तू रो मत। मैं अब विद्या का सम्पादन कर लेता हूं।'
कपिल के इस कथन का उत्तर देते हुए माता ने कहा कि 'बेटा! उस राजपण्डित ब्राह्मण के भय से तुझे इस नगरी में तो कोई पढ़ाएगा नहीं, किन्तु एक काम कर, तू श्रावस्ती नाम की नगरी में जा, वहां पर तेरे पिता का मित्र इन्द्रदत्त नाम का एक विद्वान ब्राह्मण रहता है, वह तुझे पढ़ाएगा।" कपिल ने माता के इस आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार किया और वह वहां से चल दिया।
श्रावस्ती नगरी में पहुंचने के बाद जब कपिल इन्द्रदत्त के घर में आया तब इन्द्रदत्त ने कपिल को अपरिचित व्यक्ति जानकर पूछा कि 'तू कौन है? कहां से और किसलिए आया है?' यह सुनकर कपिल ने अपना परिचय देते हुए और आगमन का कारण बताते हुए अथ से इति तक अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। उस पण्डित ने अपने मित्र का पुत्र समझकर कपिल का उचित सत्कार किया और अपने पास बैठाकर उसे विद्याभ्यास कराने का वचन दिया। अब कपिल विद्याभ्यास करने लगा और विद्वान् इन्द्रदत्त भी उसे बड़े प्रेम से विद्याभ्यास कराने लगा।
परन्तु इन्द्रदत्त जितना बड़ा विद्वान् था उतना ही निर्धन भी था। घर में खाने का ठिकाना नहीं। अपने कुटुम्ब का निर्वाह भी वह बड़े कष्ट से कर पाता था। अब कपिल की और फिकर पड़ गई। तब वह सोचने लगा कि कपिल के लिए विद्याभ्यास की तो कुछ कमी नहीं, किन्तु इसके लिए भोजन का प्रबन्ध होना कठिन है। इन्द्रदत्त अभी सोच ही रहा था कि इतने में उसकी उसी नगर के शालिभद्र नामक एक धनी-मानी प्रतिष्ठित वैश्य व्यक्ति से भेंट हो गई।
इन्द्रदत्त ने शालिभद्र से कहा कि यह मेरे एक मित्र का पुत्र है और विद्याभ्यास के लिए मेरे पास आया है, परन्तु इसके भोजन का कोई योग्य प्रबन्ध अभी तक नहीं हो सका। यदि आप कृपा करके इसके भोजन का कोई उचित प्रबन्ध कर दें तो यह विद्या का अभ्यास सुगमता से कर सकेगा। शालिभद्र ने पंडित जी की बात को आदर-पूर्वक स्वीकार करके कपिल के भोजन का अपने यहां पूरा
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 278 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं