SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (अह काविलीयं अट्ठम अन्झयण) अथ कापिलिकमष्टममध्ययनम् | सातवें अध्ययन में विषयों के त्याग का वर्णन किया गया है। विषयों के त्याग के लिए निर्लोभता का होना परम आवश्यक है, अतः निर्लोभता-विषयक इस आठवें अध्ययन में कपिल मुनि का वर्णन किया जाता है, क्योंकि अबोध जनों को इस दृष्टान्त के द्वारा शीघ्र बोध की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए निर्लोभता के विषय को कपिल मुनि के दृष्टान्त से—उसके चरित्र के वर्णन से अधिक सुगम और दृढ़ किया गया है, परन्तु उक्त विषय का वर्णन गाथाओं के द्वारा किया जाए इससे प्रथम कपिल मुनि के चारित्र का संक्षेप में उल्लेख कर देना कुछ विशेष उपयोगी प्रतीत होता है। कपिल देव का आख्यान इस प्रकार है कौशाम्बी नाम की नगरी में जितशत्रु नाम का एक राजा राज्य करता था। उसकी राजधानी में चतुर्दश विद्याओं का ज्ञाता काश्यप नाम का एक ब्राह्मण रहता था और राजदरबार में वह चिरकाल से लब्धप्रतिष्ठ था। इसीलिए राज्य की ओर से उसकी महती आजीविका भी नियत थी तथा राजधानी के अन्य प्रतिष्ठित पण्डितों में वह अग्रणी समझा जाता था । नाम के अनुसार गुणों वाली पतिपरायणा यशा नाम की उसकी भार्या थी। कुछ समय के बाद उनके घर में एक पुत्र-रत्न का जन्म हुआ। दम्पत्ति ने उस पुत्र का नाम 'कपिल देव' रखा जो कि कपिल के नाम से ही संसार में विख्यात हुआ। परन्तु समय की गति बड़ी विचित्र है। लक्ष्मी और प्रतिष्ठा सदा एक स्थान में स्थिर नहीं रहतीं। जो कुछ इस जीव की आज दशा है वह कल को नजर नहीं आती। यही स्थिति यहां पर भी हुई। कुछ दिनों के बाद कपिल देव के पिता राजपण्डित काश्यप का अकस्मात् किसी व्याधि-विशेष के कारण से देहान्त हो गया। • काश्यप के निधन के पश्चात् राजा जितशत्रु ने उसके पद पर किसी और विद्वान् ब्राह्मण को नियुक्त कर दिया। राजपण्डित के पद को प्राप्त करके वह ब्राह्मण भी काश्यप की तरह राजपुरुषों के द्वारा सत्कृत होता हुआ छत्र-चामरादि युक्त अश्वारूढ़ होकर समय-समय पर नगर में भ्रमण करने लगा और थोड़े ही दिनों में वह अपने प्रतिभा-बल से राजा का विश्वासपात्र बन गया। | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 277 / काविलीयं अट्ठमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy