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तोलयित्वा बालभावम्, अबालं चैव पण्डितः । त्यक्त्वा बालभावम्, अबालं सेवते मुनिः || ३० || इति ब्रवीमि ।
इत्येलकाध्ययनं सम्पूर्णम् || ७ ||
पदार्थान्वयः –—–— तुलियाण–—–— तोलकर, बालभावं - बाल भाव को, च- और, अबालं – अबाल भाव को, पंडिए – बुद्धिमान्, चइऊण — छोड़कर, बालभावं - बाल भाव को, मुणी —– साधु, अबालं – अबाल भाव को, सेवए— सेवन करे, ण - अलंकार अर्थ में है, त्ति - इस प्रकार, बेमि— मैं कहता हूं।
मूलार्थ – जो पंडित पुरुष बालभाव और अबालभाव को अपनी बुद्धि के द्वारा तोल .. कर—समझ कर बालभाव का परित्याग करके अबालभाव का सेवन करता है वही मुनि है । इस प्रकार मैं कहता हूं।
टीका - इस गाथा में बाल और पण्डित भाव का स्वरूप बताने के बाद इन दोनों का विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को किस कोटि में प्रविष्ट होना चाहिए, इस बात का दिग्दर्शन कराया गया है।
बुद्धिमान पुरुष का यह कर्त्तव्य है कि वह इन दोनों के भावी फल पर विचार करके अपने लिए जो श्रेय हो उसको ग्रहण करे। सूत्रकार ने तो स्पष्ट शब्दों में वर्णन कर दिया है कि पण्डित अथवा मुनि वही है जो कि बालभाव का परित्याग करके अबालभाव को ग्रहण करे और पण्डित पुरुष के पाण्डित्य एवं मुनि की मननशीलता का साफल्य इसी में है कि वह बालभाव के सेवन से भविष्य में उत्पन्न होने वाले कष्टों को विचार करके और अबालभाव का अनुसरण करनें से भविष्य में उपलब्ध होने वाले सुख समूह का ध्यान करके इन दोनों में से अपने लिए जो हितकारी मार्ग हो, उसी का दृढ़ता अनुसरण करे ।
इस गाथा के भाव का पर्यालोचन करने से भगवान् वीतराग देव श्री वर्धमान स्वामी की दयालुता और जगबान्धवता का भी स्पष्ट परिचय मिलता है। उन्होंने संसारी जीवों के कल्याणार्थ ही बालभाव के त्याग और पण्डित भाव के अनुसरण का यह परम हितकर स्वर्णिम उपदेश दिया है जो कि भव्य जीवों के लिए सदा ही आचरणीय है। यहां पर 'च' शब्द समुच्चयार्थक है और 'एव' शब्द पर रहने वाले अनुस्वार का प्राकृत के नियमानुसार लोप हो गया है ।
इसके अतिरिक्त ‘त्ति बेमि' का अर्थ पहले लिख दिया गया है, इसलिए अब यहां पर उसके लिखने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती ।
सप्तम अध्ययन संपूर्ण
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 276 / एलयं सत्तमं अज्झयणं