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अब अधर्म का त्याग और धर्म को ग्रहण करने वाले पंडित पुरुष के विषय में कहते हैं
धीरस्स पस्स धीरत्तं, सव्वधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधमं धम्मिठे, देवेसु उववज्जई ॥२६॥
धीरस्य पश्य धीरत्वं, सर्वधर्मानुवर्तिनः ।
त्यक्त्वाऽधर्मं धर्मिष्ठः, देवेषूत्पद्यते ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-धीरस्स—धीर के, धीरत्तं—धीरपने को, पस्स—देखो—जो, सव्व–सर्व, धम्माणुवत्तिणो धर्मों का अनुवर्ती है, चिच्चा–छोड़ करके, अधम्मं अधर्म को, धम्मिट्टे—धर्मिष्ठ है, देवेसु–देवों में, उववज्जई—उत्पन्न होता है।
मूलार्थ हे शिष्य! तू उस धीर पुरुष की धीरता को देख! जो कि सर्व धर्मों अर्थात् क्षान्त्यादि दशविध धर्मों का अनुगामी होकर अधर्म का त्याग करके धर्मिष्ठ बनता हुआ देवलोकों में उत्पन्न होता है।
टीका—हे शिष्य! जो बुद्धिमान् पुरुष परीषह आदि को भली प्रकार से सहन करते हैं, उनके धीरभाव-धैर्य को तू देख कि उन्होंने मारणान्तिक कष्टों के आने पर भी अपने धैर्य को नहीं छोड़ा। इसके अतिरिक्त वे क्षान्त्यादि दशविध धर्मों का अनुसरण करने वाले तथा अधर्म का परित्याग करके धर्म का आराधन करने वाले होने से ही देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यहां पर सर्वधर्म का अर्थ क्षान्त्यादि दशबिध धर्म हैं। इन्हीं धर्मों की आराधना करता हुआ पवित्र आत्मा अधर्म का त्यागी बनकर देवगति को प्राप्त होने अथवा विशेष पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष को प्राप्त होने की योग्यता का सम्पादन कर लेता है। तात्पर्य यह है कि यदि उसके सम्पूर्ण कर्म क्षय हो गए हों तब तो उसे सिद्ध-पद-मोक्ष-पद की प्राप्ति हो जाती है। यह मोक्ष पद सादि अनन्त है। इसको प्राप्त करने वाले आत्मा का इस संसार में पुनरागमन नहीं होता और यदि कुछ कर्म शेष रह जाते हैं तो वह स्वर्ग अर्थात् देवलोकों को प्राप्त होता है।
स्वर्ग के सुखों का वर्णन तो पीछे आ ही चुका है। यहां पर 'देवेसु' इस पद से ग्रहण किए गए देवलोकों में बहुवचन का प्रयोग इसलिए किया गया है कि उत्तरोत्तर एक से दूसरा देवलोक प्रधान है। जिस आत्मा ने जिस देवलोक में जाने योग्य कर्म किए हैं, वह उसी में उत्पन्न होता है।
इन दोनों गाथाओं से बाल और पण्डित जीव के स्वरूप को जान लेने के बाद अब इस जीव का आगामी जो कर्त्तव्य है उसका वर्णन करते हैं
तुलियाण बालभावं, अबालं चेव पंडिए । चइऊण बालभावं, अबालं सेवए मुणी ॥ ३० ॥
त्ति बेमि | इति एलयज्झयणं समत्तं ॥ ७ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 275 / एलयं सत्तमं अज्झयणं