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________________ इस कथन से मनुष्यो की सुगति का भी स्पष्ट बोध होता है। जैसे कि जिन जीवों की आयु दीर्घ है, घर में धन-धान्य आदि की समृद्धि भी विद्यमान है, शरीर का तेज भी अपूर्व है, लोक में यश भी फैला हुआ है और शरीर की कान्ति भी सुन्दर और मोहक है एवं स्वभाव में गंभीरता आदि गुण भी विद्यमान हैं तथा घर में श्रेष्ठतम सुख-सामग्री की भी कमी नहीं है, वे पुण्यात्मा जीव निस्सन्देह सुगति का उपभोग कर रहे हैं और इसके विपरीत जिनके पास उक्त सुख-साधन सामग्री का सर्वथा अभाव है, वे दुखी जीव दुर्गति का अनुभव कर रहे हैं। इन सब काम-भोगादि विषयों से निवृत्त होकर धर्म का आराधन करने वाले जीवों को प्राप्त होने वाले फल विशेष का निर्देश है, जिसका ज्ञान होना भी परम आवश्यक है। काम-भोगों का जिन जीवों ने परित्याग नहीं किया वे बाल कहे जाते हैं और जिन जीवों ने इनका परित्याग कर दिया है उनको पंडित कहते हैं। अब सूत्रकार बाल और पण्डित जीव के विषय में अनुक्रम से जो कुछ वर्णन करने योग्य है, दिग्दर्शन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं बालस्स पस्स बालत्तं, अहम्मं पडिवज्जिया । चिच्चा धम्म अहम्मिटे, नरए उववज्जई ॥ २८ ॥ बालस्य पश्य बालत्वं, अधर्मं प्रतिपद्य । त्यक्त्वा धर्ममधर्मिष्ठः, नरक उत्पद्यते ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः—बालस्स–अज्ञानी जीव का, बालत्तं-अज्ञानपना, पस्स—देखो, अहम्म-अधर्म को, पडिवज्जिया—ग्रहण करके, धम्मं धर्म को, चिच्चा त्याग कर, अहम्मिट्टे–अधर्मी होकर, नरए-नरकों में, उववज्जई-उत्पन्न होता है। मूलार्थ हे शिष्य! तू इस बाल अर्थात् अज्ञानी जीव की मूर्खता को देख, जो कि धर्म के परित्याग और अधर्म को अंगीकार करने से अधर्मी बनकर नरक में उत्पन्न होता है। टीका—गुरुजन अपने शिष्य को बाल और पंडित के स्वरूप का बोध कराने के लिए प्रथम बाल जीव के विषय में इस प्रकार कहते हैं 'हे शिष्य! तू इस बाल जीव की मूर्खता को देख, इस अज्ञ जीव की मूर्खता का निरीक्षण कर, क्योंकि यह स्वर्ग और मोक्ष में ले जाने वाले श्रुत और चारित्र रूप धर्म का त्याग कर अधोगति में ले जाने वाले आश्रवरूप अधर्म को अंगीकार करके अधर्म-निष्ठ बनकर नरक-गति में उत्पन्न होने को प्रस्तुत हो रहा है। इस गाथा में बाल-भाव का फल बताया गया है। बाल वही है जो अपने हित और अहित को नहीं जान पाता। इसीलिए वह विषयों में आसक्त होकर धर्म-मार्ग को छोड़ देता है। धर्म-मार्ग को छोड़कर और अधर्म मार्ग के अनुसरण से जीव नरक गति को प्राप्त होता है। यही उसकी मूर्खता एवं अज्ञान है। इसीलिए अपना हित चाहने वाले मुमुक्षु जीवों को उचित है कि वे किसी भी दशा में धर्म का त्याग और अधर्म का सेवन न करें। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 274 | एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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