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________________ टीका - इस लोक में अथवा जैन धर्म में आकर जिसने काम-भोगों का परित्याग कर दिया है वह जीव अपनी आत्मा के प्राप्त होने वाले भावी स्वर्गीय सुखों का विनाश नहीं करता, अर्थात् उसके भावी स्वर्गीय सुखं विनष्ट नहीं होते, किन्तु इस पूय - रुधिरादि- युक्त औदारिक शरीर को छोड़कर वह सौधर्मादि देव-लोकों को प्राप्त होकर देवता बनता है और यदि उसके सम्पूर्ण कर्म क्षय हो जाएं तो वह सिद्धगति — मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । गुरु अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि इस प्रकार मैंने भगवान् से श्रवण किया है कि जिस आत्मा ने विषय-भोगों की लालसा का सर्वथा परित्याग कर दिया है, उसके पारलौकिक सुख कभी विनष्ट नहीं होते, अपितु वह विरक्त आत्मा इस औदारिक शरीर को छोड़कर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से मोक्ष और कुछ शेष कर्म रहने पर देवगति को प्राप्त कर लेता है। इससे सिद्ध हुआ कि जो जीव काम - भोगों में आसक्त हैं वे अपने भावी आत्म-सुखों का विनाश करते हैं और जिन जीवों ने इन काम-भोग आदि विषयों का सर्वथा परित्याग कर दिया है उनका भावी सुख कभी विनाश को प्राप्त नहीं होता। इसलिए विवेकशील पुरुष को चाहिए कि वह अपने भावी सुखों का विचार रखता हुआ इन कामभोगादि विषयों में आसक्त न हो । काम - भोगादि के त्याग करने वालों को इससे अधिक जो कुछ प्राप्त होता है, अब उसके विषय में कहते हैं इड्ढी जुई जसो वण्णो, आउं सुहमणुत्तरं । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु, तत्थ से उववज्जई ॥ २७ ॥ ऋद्धिर्द्युतिर्यशो वर्णः, आयुः सुखमनुत्तरम् । भूयो यत्र मनुष्येषु तत्र स उत्पद्यते ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः—इड्ढी—ऋद्धि, जुई—–— ज्योति, जसो –—यश, वण्णो—–वर्ण, आउं— आयु, सुहं – सुख, अणुत्तरं — प्रधान अर्थात् प्रमुख, भुज्जो — फिर, जत्थ – जहां, मणुस्सेसु — मनुष्यों में, तत्थ — वहां से वह जीव, उववज्जई – उत्पन्न होता है । मूलार्थ — जिन उत्तम एवं धर्मनिष्ठ कुलों में ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, आयु और सभी प्रकार के सुख हों वहां पर वह जीव फिर उत्पन्न होता है। टीका - जब वह पुण्यात्मा जीव स्वर्ग लोक के सुखों को भोगकर फिर मनुष्य-लोक में आता है, तब उसका जन्म किस स्थान में और किस रूप में होता है, इसका दिग्दर्शन इस गाथा में किया गया । स्वर्ग लोक से च्युत होने के पश्चात् मनुष्य-लोक में उस पुण्यात्मा जीव का ऐसे स्थान या कुल में जन्म होता है जहां पर विपुल ऋद्धि, विशिष्ट ज्योति, प्रौढ़ यश, सुन्दर वर्ण, दीर्घ आयु और इनमें उत्तरोत्तर विशिष्ट सुख एवं ऐश्वर्य की सभी तरह की अतुल सामग्री विद्यमान हो । कारण कि अपने शेष पुण्यों को भोगने के लिए ही वह मनुष्य-लोक में उत्पन्न होता है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 273 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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