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________________ अत्तट्टे-आत्मार्थ-आत्म-प्रयोजन, अवरज्झई-नाश हो जाता है, सोच्चा–सुनकर, नेयाउयंन्याय युक्त, मग्गं—मार्ग को, भुज्जो—फिर, जं—जिससे, परिभस्सई-भ्रष्ट हो जाता है—पतित हो । जाता है। मूलार्थ—इस लोक में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष का आत्म-प्रयोजन अर्थात् आत्म-साधना रूप लक्ष्य नष्ट हो जाता है, जिससे कि वह मोक्ष-मार्ग को सुनकर भी फिर भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् उस न्याययुक्त मार्ग से भटक जाता है। टीका—इस गाथा में इस बात का दिग्दर्शन कराया गया है कि इस लोक में अथवा जिन-धर्म में प्रविष्ट होकर भी जिस व्यक्ति ने काम-भोगों का परित्याग नहीं किया, उसने आगामी जन्म में प्राप्त होने वाले अपने पारलौकिक सुखों का विनाश कर दिया है, क्योंकि सम्यग्-दर्शनादि रूप मोक्ष-मार्ग को सुनकर भी वह उससे गिर रहा है, इसलिए उसने अपने भावों पारलौकिक सुख को विनष्ट कर दिया है। ___ यहां पर यदि कोई यह कहे कि जब कि जिन-धर्म निवृत्ति-मार्ग का उपदेष्टा है तो फिर उसको श्रवण करने वाला जीव धर्म-मार्ग से पतित ही क्यों होता है? इसका समाधान यह है कि जिन जीवों ने कर्मों का निबिड़ बन्ध किया हुआ है ऐसे गुरुकर्मी जीव प्रथम तो इस न्याय-पथ के विषय में कुछ सुनना ही नहीं चाहते और यदि सुन भी लें तो उसके ग्रहण करने की इच्छा उनके मन में नहीं होती। अस्तु, किसी प्रकार से अंगीकार कर भी लें तो उनसे उस न्याय-मार्ग का यथावत् पालन नहीं हो पाता। बस यही कारण है उनके धर्म-पथ से भ्रष्ट हो जाने का। 'अपराध्यति' क्रिया का 'नश्यति' अर्थ करना, 'धातुएं अनेकार्थकं होती हैं' इस नियम के अनुसार है। तथा आत्मार्थ-आत्म-प्रयोजन से यहां पर स्वर्गीय सुख विशेष ही विवक्षित हैं। अब काम-भोगों से निवृत्त होने वाले जीवों के विषय में कहते हैं इह काम-णियट्टस्स, अत्तढे नावरज्झई । पूइदेहनिरोहेणं, भवे देवे त्ति मे सुयं ॥ २६ ॥ ' इह काम-निवृत्तस्य, आत्मार्थो, नापराध्यति । . पूतिदेहनिरोधेन, भवेद् देव इति मया श्रुतम् ॥ २६॥ पदार्थान्वयः—इह—इस लोक में, काम-णियट्टस्स—काम-भोगों से निवृत्त होकर, अत्तट्टेआत्मार्थ-आत्म-प्रयोजन, नावरज्झई नष्ट नहीं होता, पूइदेह—औदारिक शरीर के, निरोहेणंनिरोध से—पतन से, भवे—होता है, देवे देवता, इत्ति—इस प्रकार, मे—मैंने, सुयं—सुना है। ___मूलार्थ—इस लोक में काम-भोगों से निवृत्त जीव का आत्मार्थ अर्थात् आत्म-प्रयोजन (स्वर्गीय सुख विशेष) नष्ट नहीं होता, अपितु वह औदारिक शरीर को छोड़कर देवता बन जाता है, इस प्रकार मैंने सुना है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 272 / एलयं सत्तमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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