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________________ पदार्थान्वयः–कुसग्गमेत्ता—कुशाग्रमात्र, इमे—ये, कामा काम-भोग हैं, सन्निरुद्धम्मि–संक्षिप्त अर्थात् छोटी सी, आउए—आयु के होने पर, कस्स—किस, हेउं हेतु को, पुरोकाउं—आगे रख कर, अर्थात् अपने समक्ष रखकर, जोग—योग—और, क्खेमं—क्षेम को, न संविदे—यह अज्ञानी जीव नहीं जानता?। मूलार्थ-कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु के समान ये काम-भोग हैं और मनुष्य की आयु अत्यन्त संक्षिप्त अर्थात् छोटी है तो फिर किस कारण से काम-भोगों को आगे रखकर तुम धर्म-सम्बन्धी योगक्षेम को नहीं जानते? टीका-मनुष्य-सम्बन्धी ये सब काम-भोग केवल कुशा के अग्रभाग में ठहरे हुए जल-बिन्दु के समान अत्यन्त क्षुद्र हैं और आयु भी अत्यन्त स्वल्प है, इसलिए काम-भोगों के निमित्त से प्राप्त हुए धर्म और उससे प्राप्त होने वाले स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अप्राप्त की प्राप्ति को योग और प्राप्त हुए का पालन करना क्षेम कहलाता है। इस सारे वर्णन का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की आयु और समृद्धि बहुत ही स्वल्प है। इस स्वल्पतर समृद्धि और आयु में उसे जो धर्म की प्राप्ति हुई है तथा उस धर्म से जो स्वर्ग और मोक्ष के सुख की आशा है उसकी ओर अवश्य दृष्टि रहनी चाहिए, अर्थात् तुच्छ विषय-भोगों को दृष्टि में रखकर धर्म की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। यही जीवन का बहुमूल्य सार है। इस प्रकार इन पांचों दृष्टान्तों में सूत्रकर्ता ने मनुष्य के हेयोपादेय तथा कर्त्तव्याकर्त्तव्य को समझाते हुए धर्म के सारगर्भित मर्म का बड़ी अच्छी तरह से निरूपण किया है। उपर्युक्त प्रकरण में बकरे के दृष्टान्त से—विषयासक्ति से अनर्थ और कष्टों की उत्पत्ति, काकिणी और आम्र-फल के दृष्टान्त से भोगों की तुच्छता, वणिकों के दृष्टान्त से आय और व्यय की तुलना तथा समुद्र के दृष्टान्त से देवों और मनुष्यों के ऐश्वर्य का अन्तर इत्यादि विषयों का बड़ी सुन्दरता से विवेचन किया गया है, जिसका तात्पर्य काम-भोगों से जीवों की निवृत्ति कराना है। सूत्रकर्ता जीवों के परम हितैषी हैं, इसलिए बार-बार भोग-निवृत्ति का उपदेश करते हैं। - 'कस्स' यह द्वितीया में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग है। - धर्म-सम्बन्धी योग-क्षेम के प्राप्त होने पर भी जो जीव उसका आराधन नहीं करते अब उनके सम्बन्ध में कहते हैं इह कामाणियट्टस्स, अत्तठे अवरज्झई । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, जं भुज्जो परिभस्सई ॥२५॥ ... इह कामाऽनिवृत्तस्य, आत्मार्थोऽपराध्यति । श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग, यं भूयः परिभ्रश्यति ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः—इह—इस लोक में, कामाणियट्टस्स—काम-भोगों से अनिवृत्त का, . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 271 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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