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जहा कुसग्गे उदगं, समुद्देण समं मिणे । एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अंतिए ॥ २३ ॥
यथा कुशाग्र उदकं, समुद्रेण समं मिनुयात् ।।
एवं मानुष्यकाः कामाः, देवकामानामन्तिके || २३ || . . पदार्थान्वयः—जहा—जैसे, कुसग्गे—कुशा के अग्रभाग में स्थित, उदगं—जल-बिन्दु को, समुद्देण—समुद्र-जल के, समं—साथ, मिणे—मापे, एवं इसी प्रकार, माणुस्सगा—मनुष्यों के कामा—काम-भोग, देवकामाण–देवों के काम-भोगों के, अंतिए—समीप हैं।
मूलार्थ—मनुष्य के काम-भोगों का देवों के काम-भोगों से इतना अन्तर है जितना कि कुशाग्र के अग्रभाग में स्थित जल-बिन्दु का समुद्र के जल के साथ अन्तर है। ___टीका—जैसे कोई मूर्ख व्यक्ति कुशा के अग्रभाग में स्थित जल के अति सूक्ष्म-बिन्दु को देखकर यह निश्चय कर लेता है कि यह बिन्दु प्रमाण में समुद्र के जल के समान है, ठीक इसी प्रकार मनुष्यों के काम-भोगों को भी देवों के काम-भोगों के समान मूर्ख व्यक्ति ही समझता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कुशाग्र स्थित जल बिन्दु में और समुद्र-जल में महान् अन्तर है, उसी प्रकार मनुष्यों और देवों के काम-भोगों में भी बड़ा भारी. अन्तर है। देवों के काम-भोग तो समुद्र-जल के समान हैं और मनुष्यों के काम-भोग अति क्षुद्र कुशाग्र-स्थित जलबिन्दु के तुल्य हैं, अतः इन दोनों को समान समझना भ्रान्ति ही नहीं, किन्तु नितान्त मूर्खता है।
___ यद्यपि मनुष्य सम्बन्धी सबसे अधिक और उत्तम काम-भोग चक्रवर्ती को प्राप्त होते हैं, परन्तु देवों के काम भोगों के समक्ष उसके काम-भोगों की भी कुछ गणना नहीं है। उनके सामने तो वे भी कुशाग्र में स्थित जल-कण के ही समान हैं। इसलिए भव्य जीवों को शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि हे भव्य-जनों ! तुम मनुष्य-सम्बन्धी तुच्छ काम-भोगों में आसक्त होकर अपना परलोक क्यों नष्ट कर रहे हो ? अथवा देवगति के लाभ को क्यों खो रहे हो? यह समय बार-बार मिलना बहुत कठिन है और यदि तुम को संसार के ही सुखों की अभिलाषा है तो फिर भी तुम देव-भव को क्यों खोते हो? इसलिए यदि तुमसे सर्व-विरति साधु-धर्म का पालन न हो सके तो तुम देश-विरति श्रावक-धर्म का ही आराधन करो, ताकि तुम्हें दुर्गति में न जाना पड़े। अब सूत्रकार निगमन करते हुए उपदेश देते हैं
कुसग्गमेत्ता इमे कामा, सन्निरुद्धम्मि आउए । कस्स हेउं पुरोकाउं, जोगक्खेमं न संविदे? ॥ २४ ॥
कुशाग्रमात्रा इमे कामाः सन्निरुद्धे आयुषि । कं हेतुं पुरस्कृत्य, योगक्षेमं न संविद्यातू? || २४ ||