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होने पर जिसके मन में आकुलता नहीं होती वह अदीन कहा जाता है। अतएव सिद्ध हुआ कि मूल-धन का अतिक्रमण करके देव-भाव को प्राप्त करने वाले जो जीव हैं, वे ग्रहण, आसेवनादि शिक्षाओं से विभूषित, सदाचारी, सविशेष और अदीन ही होते हैं या होने चाहिएं, अन्यथा उनके लिए देवलोक की प्राप्ति दुर्लभ नहीं, किन्तु असम्भव हो जाती है ।
यद्यपि उत्तम शास्त्रीय शिक्षा एवं सदाचार के पालन एवं अप्रमत्त रूप से की गई नियमबद्ध साधना के द्वारा यह आत्मा मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है, करता भी है, परन्तु वर्तमान काल में शरीर आदि का इतना विशिष्ट संहनन न होने से तथा उक्त क्रियाओं का सर्वथा निरतिचार रूप से पालन अशक्य होने से इस पञ्चम-काल में मोक्ष प्राप्ति का होना अशक्य है, इसलिए यहां देव-लोक की प्राप्ति का ही कथन किया गया है।
अब इस दृष्टान्त का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार लिखते हैंएवमदीणवं भिक्खु, अगारिं च वियाणिया । कहण्णु जिच्चमेलिक्खं, जिच्चमाणो न संविदे ॥ २२॥ . एवमदैन्यवन्तं भिक्षुम्, अगारिणं च विज्ञाय ।
कथं नु जीयेत ईदृक्षं, जीयमानो न संविद्यात् ॥ २२॥
पदार्थान्वयः–एवं—इस प्रकार, अदीणवं — दीनता से रहित, भिक्खुं – साधु को, च-वा, अगारिं—गृहस्थ को, वियाणिया — जान करके, कहं—– कैसे, णु-वितर्क में, जिच्चं - हारा हुआ, एलिक्खं - यह प्रत्यक्ष – देवगति रूप लाभ को, जिच्चमाणो — हारता हुआ, न संविदेक्या नहीं जानता? अर्थात् जानता है।
मूलार्थ - इस प्रकार देवगति रूप लाभ को हारता हुआ जीव दीनता से रहित भिक्षु और गृहस्थ को जान करके क्या हारे हुए व्यक्ति को नहीं जानता? अपितु अवश्य ही जानता है ।
टीका— दीनता-रहित उत्तम साधु अथवा गृहस्थों को जिस देव - गति का लाभ होता है और जो मनुष्य-गति के लाभ को विषय कषायों के वशीभूत होकर हार देते हैं, अर्थात् उस हार को निश्चय ही जानते हैं, अतः जो अपने मूल अथवा लाभ को हार रहे हैं उनको सम्यक् प्रकार से सभी गतियों को जानकर अपने लाभ के मार्ग पर ही जाना चाहिए ।
इस सूत्र में इस बात को दिखाया गया है कि लाभ और हानि को ठीक-ठीक समझकर लाभ के मार्ग में ही जाना उचित है । फिर हारे हुए व्यक्ति की तरह अपने हारने को भी भली-भांति जानते हैं। इसी आशय से 'कहण्णु-कथं नु ' शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस प्रकार सूत्रकर्त्ता ने उक्त चार दृष्टान्तों का विस्तार - सहित वर्णन कर दिया है। अब पांचवें समुद्र के दृष्टान्त का वर्णन करते हैं
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 269 / एलयं सत्तमं अज्झयणं