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वाले और सत् पुरुषों के आचार का अनुसरण करने वाले हैं, वे इस शरीर का त्याग करने के पश्चात् फिर भी मनुष्य योनि को ही प्राप्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि किसी दुर्गति में उनका जन्म नहीं होता, क्योंकि सत्क्रियाओं अर्थात् सदाचार का फल सदा शुभ ही होता है। इसके विपरीत असत् क्रियाएं सदा अशुभ फल देने वाली तथा अशुभ गति का बन्ध करने वाली होती हैं। यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि उक्त गाथा में 'सुव्वया - सुव्रताः' शब्द का प्रयोग किया गया है वह देशव्रत की अपेक्षा से नहीं किया गया, देशव्रत वाला आत्मा तो केवल देवगति में ही जाने वाला होता है, किन्तु जो व्यक्ति देशव्रत आदि को अंगीकार करने में असमर्थ है और संसार पक्ष में सदाचार से सम्पन्न है वही आत्मा सत् क्रियाओं के अनुष्ठान से मनुष्य योनि को प्राप्त करता है।
यहां शास्त्रकार ने ‘कर्म सत्य हैं' कह कहकर कर्मों की महत्ता एवं जीवन के सुख-दुख में उनकी कारणता के सिद्धान्त को स्पष्ट किया है और उनका शुभाशुभ फल अवश्य प्राप्त होता है, यह भी प्रतिपादित किया है ।
‘कम्मसच्चा’ इस शब्द में प्राकृत के नियम से 'कम्म' शब्द का पूर्व में निपात हुआ है। 'हु' शब्द हेत्वर्थक है।
अब मूलधन में वृद्धि करने वालों के विषय में कहते हैं
जेसिं तु विउला सिक्खा, मूलियं ते अइच्छिया । सीलवन्ता सविसेसा, अदीणा जन्ति देवयं ॥ २१ ॥ येषां तु विपुला शिक्षा, मौलिकं तेऽतिक्रान्ताः । शीलवन्तः सविशेषाः, अदीना यान्ति देवत्वम् || २१ ||
पदार्थान्वयः—–जेसिं—जिन जीवों की, विउला — बहुत, सिक्खा - शिक्षाएं हैं, ते—वे, मूलियं-- मूल धन को, अइच्छिया — अतिक्रमण कर जाते हैं, सीलवंता – सदाचार, सविसेसा — विशेष गुण युक्त, अदीणा — दीनता से रहित, देवयं – देवभाव को, जंति - प्राप्त करते हैं, तु एव अर्थ में ।
मूलार्थ - जिन जीवों की शिक्षाएं अधिक विस्तृत हो गई हैं और जो सदाचारी, विशेष गुणों से युक्त और दीनता से रहित हैं वे मूल-धन का अतिक्रमण करते हुए देवलोकों में चले जाते हैं ।
टीका - इस गाथा • इस भाव को प्रकट किया गया है कि जिन जीवों की सम्यक्त्व को साथ लिए हुए अणुव्रतों वा महाव्रतों के ग्रहण रूप तथा आसेवन रूप- शिक्षाएं बढ़ गई हैं वे जीव मूल धन रूप मनुष्य जन्म को अतिक्रमण करके देवभव को प्राप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव शीलवंत अर्थात् सदाचारी, विशेष गुणों से युक्त और दीनता से रहित होते हुए देव-भाव को प्राप्त करते हैं। जो जीव ‘अव्रत- सम्यग् - दृष्टि' चतुर्थ गुण-स्थान से ऊपर चढ़कर 'देशविरति-गुण-स्थान' से अथवा सर्व-विरति-रूप ‘प्रमत्त- संयत- गुणस्थान' से युक्त हो उसे शीलवान् या सदाचारी कहते हैं । गुणों में जो उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा है उसको सविशेष कहते हैं तथा किसी प्रकार के परीषह के उपस्थित
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 268 /
एलयं सत्तमं अज्झयणं