________________
टीका–देवत्व और मनुष्यत्व को हार देने वाले जीव की कैसी दुर्गति होती है, इस बात का विचार करके और अपनी निर्मल बुद्धि के द्वारा पंडित-भाव और बाल-भाव को तोलकर जो जीव मूल धन में प्रवेश करते हैं वे मनुष्य-योनि को प्राप्त कर लेते हैं। इस कथन का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार व्यापार में प्रवृत्त होने वाला बुद्धिमान् वणिक् अपने मूल धन को हर प्रकार से सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है, अर्थात् यदि उससे उस मूल धन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हो सकी तथापि वह किसी प्रकार के व्यसनों में पड़कर उसका विनाश भी नहीं करता, किन्तु ज्यों का त्यों उसे बनाए रखता
____इसी प्रकार जो विवेकशील पुरुष बाल और पण्डित भाव के स्वरूप को भली-भान्ति समझकर अर्थात् इन दोनों के भावी परिणामों पर विचार करके येन-केन उपायेन अपने मूल धन मनुष्यत्व को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं वे अवश्य ही मनुष्य-भव को प्राप्त कर लेते हैं। पहले कहा जा चुका है कि 'मनुष्य भव' यही मूल धन है। जिन आत्माओं ने अपनी बुद्धि के द्वारा बाल-प्रवृत्ति और पण्डित-प्रवृत्ति के परिणाम पर विचार कर लिया है वे जीव अपने मूल धन को सर्व प्रकार से सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं। ___ यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि यह उपदेश केवल व्यवहार कोटि को लेकर किया गया है, अन्यथा उपदेश दिया जाता कि तुम मनुष्य-योनि को प्राप्त करके भगवान् वीतरागदेव की निरवद्य वाणी पर विश्वास करो, क्योंकि वह केवल मोक्ष-सुख को ही उपादेय बताती है । इत्यादि । अब उन जीवों के मनुष्य-योनि में आने का प्रकार बताते हैं
वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहि सुव्वया । उवेन्ति माणुसं जोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२०॥ विमात्राभिः शिक्षाभिः, ये नराः गृही सुव्रताः ।
उपयान्ति मानुषीं योनि, कर्मसत्याः खु प्राणिनः ॥ २०॥ पदार्थान्वयः–वेमायाहिं—नाना प्रकार की, सिक्खाहिं शिक्षाओं से, जे–जो, नरा—मनुष्य, गिहि-गृहस्थ होते हुए भी, सुव्वया—सुन्दर व्रतों वाले हैं वे, माणुसं—मनुष्य की, जोणिं—योनि को, उति—प्राप्त होते हैं, हु–निश्चय ही, कम्मसच्चा—कर्म सत्य हैं, पाणिणो—प्राणी के।
मूलार्थ जो व्रतशील गृहस्थ नाना प्रकार की शिक्षाओं से अलंकृत हैं वे मनुष्य-योनि को निश्चय ही प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि प्राणी के कर्म सत्य हैं, जैसे वे किये जाते हैं वैसे ही फल देते
___टीका जो पुरुष सदाचार-सम्बन्धी नानाविध शिक्षाओं से विभूषित हैं जैसे कि प्रकृति से भद्र, सरल-स्वभाव, विनयवान्, दयालु और किसी से ईर्ष्या न करने वाले तथा व्यवहार में सत्य का बर्ताव करने वाले, सत्य व्यवहार करने वाले, विश्वासघात के त्यागी, पवित्र कुल-मर्यादाओं का पालन करने |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 267 । एलयं सत्तमं अज्झयणं