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________________ पदार्थान्वयः–तओ—तदनन्तर, जिए—हारा हुआ, सइं—सदा, होइ—होता है, दुविहं—दो प्रकार की, दुग्गइं—दुर्गति को, गए—गया हुआ, दुल्लहा दुर्लभ है, तस्स-उसको, उम्मग्गा—उन गतियों से निकलना, अद्धाए—बड़े मार्ग में, सुचिरादवि—बहुत काल से भी। मूलार्थ इसके अनन्तर वह अज्ञानी जीव उक्त दोनों प्रकार की गतियों को प्राप्त हुआ सदा ही हारा रहता है, क्योंकि वहां से बहुत काल तक उसका निकलना कठिन हो जाता है। टीका–संसार के तुच्छ विषय-भोगों में फंसे रहने के कारण देवत्व और मनुष्यत्व को हार देने के पश्चात् नरक अथवा तिर्यग्गति में प्राप्त हुआ वह अज्ञानी जीव चिरकाल तक जिस प्रकार के कष्टों और नरक यातनाओं को भोगता है उसकी कल्पना करते हुए भी अन्तःकरण व्याकुल हो उठता है, परन्तु इन दोनों दुर्गतियों में से उसका निकलना चिरकाल तक भी कठिन है, क्योंकि इन दुर्गतियों की काय-स्थिति अनन्त काल तक की मानी गई है। यद्यपि नारकी जीवों की भव-स्थिति की उत्कृष्ट मर्यादा असंख्यात काल की कही गई है, किन्तु तिर्यग् योनि में जो वनस्पति हैं, उनकी उत्कृष्ट कायस्थिति तो अनन्त काल की ही मानी गई है। अतः सूत्रकार का यह आशय है कि यदि बाल जीव इस पशु-योनि के मार्ग में चला गया तो फिर उसको उससे निकलना अति कठिन हो जाता है, क्योंकि इसमें कर्म-बन्धन से मुक्ति असम्भव है और कर्म-बन्ध के कारण विशेष हैं। यद्यपि बहुत से जीव इस गति में एक भव करके भी मोक्ष में चले जाते हैं, तथापि ऐसे जीव बहुत ही स्वल्प हैं और परिभ्रमण करने वालों की संख्या तो अनन्त है। अतः शास्त्रकारों ने बाल जीवों को उपदेश करते हुए उनकी गतियों का भी वर्णन कर दिया है तथा उनकी अज्ञानता का जो परिणाम है उसका भी दिग्दर्शन करा दिया है। ___ अब मूल धन को सुरक्षित रखने वाले जीवों के विषय में जो विचारणीय विषय है उसका दिग्दर्शन कराते हैं एवं जियं सपेहाए, तुलिया बालं च पंडियं । मूलियं ते पवेसन्ति, माणुसिं जोणिमेन्ति जे ॥१६॥ __ एवं जितं संप्रेक्ष्य, तोलयित्वा बालं च पण्डितम् । । ___ मौलिकं ते प्रविशन्ति, मानुषीं योनिं यान्ति ये || १६ || पदार्थान्वयः–एवं—इस प्रकार, जियं—हारे हुए को, सपेहाए—देख करके, तुलिया बुद्धि से तोल करके, बालं—बाल, च-और, पंडियं—पंडित को, मूलियं—मूल धन में, ते—वे, पवेसंति—प्रवेश करते हैं, जे–जो, माणुसिं—मनुष्य की, जोणिं-योनि में, एंति—आते हैं। मूलार्थ—इस प्रकार हारे हुए व्यक्ति को देखकर और बाल तथा पंडित भाव को अपनी बुद्धि से तोलकर जो प्राणी मूल धन में प्रवेश करते हैं अर्थात् मूल धन को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते हैं वे मनुष्य-योनि को प्राप्त कर लेते हैं। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 266 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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