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आपत्ति-मूलक और, वह-मूलिया वध-मूलक, देवत्तं देवत्व, च—और, माणुसत्तं मनुष्यत्व, जं—जिससे, जिए - हार गया, लोलया-मांसादि का लोलुप, सढे-धूर्त ।। ___मूलार्थ धूर्त और मांसलोलुप उस बाल अर्थात् अज्ञानी जीव को जिसने कि देवत्व और मनुष्यत्व को हार दिया है नरक और तिर्यक् ये दो गतियां प्राप्त होती हैं। इनमें से एक कष्ट-मूलक और दूसरी वध-मूलक है। . टीका-इस गाथा में यह भाव दिखाया गया है कि जो सांसारिक जीव राग-द्वेष में फंसे हुए हैं और नाना प्रकार के अधर्म-कार्यों में प्रवृत्त हैं, उन बाल जीवों की दो गतियां प्रतिपादित की गई हैं—एक नरक और दूसरी तिर्यक्, ये दोनों ही अनेक प्रकार के कष्टों तथा वध-बन्धनादि नानाविध विपत्तियों की मूल हैं, कारण कि पशुओं के साथ जो कठोर बर्ताव होता है वह तो सबका प्रत्यक्ष ही है
और नरकगति के भयानक कष्ट अनुमान और आगम प्रमाण से सिद्ध हैं तथा बाल जीव उसी गति में प्रविष्ट होते हैं जहां कि फिर भी कर्मों का अहर्निश बन्ध ही होता रहता है, क्योंकि उन्होंने अपने कुत्सित आचरणों से देवत्व और मनुष्यत्व को हार दिया है, अर्थात् इन दोनों के अनुरूप वे कोई सुकृत कर्म नहीं करते, किन्तु इनके विपरीत नरक और तिर्यक्गति में जाने योग्य जघन्य आचरणों का ही वे सेवन करते हैं। यथा मांस का सेवन करना, पञ्चेन्द्रिय जीवों का वध करना तथा दूसरों से छल करना, विश्वासघात करना इत्यादि। इनमें से मांसादि के आहार से तो अज्ञानी जीव देव गति के सुखों को हारता ही है और छल-कपट आदि के द्वारा वह मनुष्य-जन्म से भी वंचित हो जाता है। इस प्रकार जब मूल धन ही नष्ट हो गया तो फ़िर उससे वृद्धि की आशा किस प्रकार से की जा सकती है। इसलिए सांसारिक विषय-विकारों में फंसकर अपने मूल धन स्वरूप मानव-भव को खो देने वाला अज्ञानी जीव निस्सन्देह नरक और तिर्यग् योनि में उत्पन्न होकर कष्ट एवं वध-बन्धनादि रूप दुख-परम्परा का ही
अहर्निश अनुभव करने वाला होता है, क्योंकि दुख की पराकाष्ठा का मूल इन दोनों ही गतियों में निहित है। इसलिए प्रस्तुत गाथा में ये दोनों गतियां आपदाओं और वध का मूल कही गई है। __ यहां पर बाल जीव की दो गतियों का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने जिस आत्मा को बाल कहा है, वह आयु की दृष्टि से नहीं, किन्तु धर्म की दृष्टि से कहा है। संसार की दृष्टि में तो वह अपने कार्यों में बहुत ही निपुण माना जाता है। अब मूल धन का विनाश करके नीच गति में जाने वाले जीव के विषय में कहते हैं. तओ जिए सई होइ, दुविहं दुग्गई गए ।
दुल्लहा तस्स उम्मग्गा, अद्धाए सुचिरादवि ॥ १८॥
ततो जितः सकृद् भवति, द्विविधां दुर्गतिं गतः । दुर्लभा तस्योन्मज्जा, अद्धायां सुचिरादपि || १८ ||
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 265 / एलयं सत्तमं अज्झयणं