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मूलार्थ - मनुष्यत्व यह मूल धन है और लाभ के समान देवत्व की प्राप्ति है, अतः मूल का नाश करने वाले जीवों को नरकगति और तिर्यञ्चगति की ही प्राप्ति होती है ।
टीका - जीवों का मूल धन — मूल पूंजी मनुष्यत्व है। इसी से स्वर्ग और मोक्ष की उपलब्धि होती. है। यदि किसी जीव ने अपने विशेष पुरुषार्थ से देव भव को प्राप्त कर लिया, तब तो समझिए कि उसे मनुष्य-गति के भोगों की अपेक्षा कई सहस्र गुणा अधिक स्थायी और दिव्य स्वर्गीय काम-भोगों की प्राप्ति का लाभ हो गया और यदि उसने मानव जीवन केवल ऐहिक विषय-भोगों में लगाकर मूल धन रूप मनुष्य जन्म को खो दिया तो उसे निश्चय ही नरकगति और पशु आदि की योनि में जाना पड़ेगा । इस सारे विवेचन का सारांश यह है कि इस संसार में मुख्यतः तीन प्रकार के जीव हैं(१) जो मार्दवादि गुणों से युक्त हैं, वे मनुष्य योनि के कर्मों का उपार्जन करते हैं ।
(२) जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से युक्त हैं वे सराग-संयम अथवा संयमासंयम के अनुष्ठान द्वारा देव योनि के दिव्य सुखों का संग्रह करते हैं।
(३) जो पांच प्रकार के आश्रवों अर्थात् पाप-मार्गों का अनुसरण करते हुए अधिकांश अधर्म में ही प्रवृत्त रहते हैं वे नरक और तिर्यग्योनि के ही दुखों का संग्रह करने वाले हैं।
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इन तीनों के अतिरिक्त चौथे प्रकार के वे महापुरुष हैं कि जो अतिचार - रहित संयम अनुष्ठान के द्वारा कर्म-मल से सर्वथा रहित होकर परम सुख और परम कल्याण रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। वस्तुतः इन समस्त ऊंची-नीची गतियों का मूल आधार मनुष्यत्व अथवा मनुष्य गति ही है । इस मनुष्यत्व रूप मूल धन की वृद्धि करने वाला जीव ऊर्ध्वगति में जाता है और इस मूल धन का विनाश करने वाला अधोगति को प्राप्त होता है ।
इस वर्णन से सूत्रकार भव्य जीवों को यही शिक्षा देते हैं कि तुम मनुष्य हो, तुम इस मूल धन में यथेच्छ वृद्धि कर सकते हो, इसलिए तुम देवगति के योग्य कर्मों का संग्रह करो और अन्त में उन कर्मों का भी अपने पुरुषार्थ के द्वारा क्षय करके परम निर्वाण पद को प्राप्त करने का यत्न करो। इसके विपरीत नरक और तिर्यग्योनि के अनुरूप दुष्ट कर्मों का संग्रह करना तुम्हारे मनुष्य-भव के योग्य नहीं
है ।
अब सूत्रकार फिर इसी विषय को पुष्ट करते हुए कहते हैं—
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दुहओ गई बालस्स, आवई वहमूलिया । देवत्तं माणुसत्तं च, जं जिए लोलयासढे ॥ १७ ॥ द्विधा गतिर्बालस्य, आपद्-वधमूलिका I देवत्वं मनुष्यत्वञ्च, यज्जितो लोलतयाशठः || १७ ||
पदार्थान्वयः—–दुहओ—दो प्रकार की गई — गति, बालस्स – बाल जीव की, आवई—
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 264 / एलयं सत्तमं अज्झयणं