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तीनों व्यक्तियों में से मूल धन में वृद्धि करने, मूल धन को सुरक्षित रखने और मूल धन का विनाश करने वाले तीनों व्यक्ति क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम कहे जाते हैं।
जैसे. उन तीनों व्यापारियों में से एक ने तो अपने बुद्धि-बल से उस मूल धन को इस रीति से व्यापार में लगाया कि उससे उसको द्विगुण लाभ हुआ और वह अपने मूल धन को बढ़ा करके आनन्द पूर्वक घर को लौटा।
दूसरे व्यक्ति ने अपने मूल धन को सुरक्षित रख कर उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं आने दी, परन्तु वह उस मूल धन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं कर सका, अतः केवल मात्र अपने मूल धन को ही लेकर घर में लौट आया।
इनमें जो तीसरा व्यक्ति था उसको विदेश में जाते ही ऐसे पुरुषों की संगति मिली कि जिसके कारण वह जूआ, मांस, मदिरा और वेश्या आदि नाना प्रकार के दुर्व्यसनों में पड़कर वृद्धि करने के स्थान में अपने मूल धन को भी सर्वथा खो बैठा।
इनमें पहला पुरुष तो निःसन्देह प्रशंसा का पात्र होने से उत्तम कहा जाता है। दूसरा व्यक्ति जिसने कि उस मूल धन में किसी प्रकार की कमी नहीं आने दी, किन्तु उसे सुरक्षित ही रखा, वह किसी प्रकार की प्रशंसा अथवा तिरस्कार का पात्र न होने से मध्यम-कोटि में गिना जाता है और और तीसरा व्यक्ति जिसने कि व्यसनों में पड़कर अपने सारे मूल धन को खो दिया है वह तिरस्कार का पात्र होने से अवश्य ही अधम-कोटि में आता है। .. यह एक व्यावहारिक दृष्टान्त है, जैसे व्यवहार में मूल पूंजी में वृद्धि करना, मूल पूंजी को सुरक्षित रखना और मूल पूंजी को खो देना, ये उत्तम, मध्यम और अधम-कोटि के तीन रूप हैं, इसी प्रकार धर्म के विषय में भी मूल धन को लेकर उसके तीन रूपों का वर्णन किया गया है। यद्यपि निश्चयनय के अनुसार लाभ-हानि के विषय में अन्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम को ही प्रधानता है, अर्थात् उसी के अनुसार मनुष्य को लाभ अथवा हानि की प्राप्ति होती है, तथापि यहां पर व्यवहार कोटि को लेकर ही लाभालाभ का वर्णन किया गया है।
__ अब धर्म के विषय में इस उपमा को घटाते हुए शास्त्रकार जिस प्रकार लिखते हैं, उसको दर्शाया जाता है
- माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे ।
मूलच्छेएण जीवाणं, नरग-तिरिक्खत्तणं धुवं ॥ १६ ॥ . मानुषत्वं भवेन्मूलं, लाभो देवगतिर्भवेत् ।
मूलच्छेदेन जीवानां नरक-तिर्यक्त्वं ध्रुवम् || १६ ॥ __ पदार्थान्वयः—माणुसत्तं मनुष्यत्व, भवे है, मूलं—मूल धन, लाभो लाभ रूप, देवगईदेवगति, भवे है, मूलच्छेएण—मूल के नाश करने से, जीवाणं जीवों को, नरग–नारकीयपना
और, तिरिक्खत्तणं-तिर्यक्पना, धुवं—निश्चय ही होता है। |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 263 / एलयं सत्तमं अज्झयणं