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________________ को हार गया तो फिर उसको वैसा समय दुर्लभ है। यह मानवीय सौ वर्ष की आयु बहुत स्वल्प है, अतः इसमें हारे हुए जीव को फिर समय मिलना अत्यन्त कठिन है। अथवा कुछ कम सौ की आयु का वर्णन भगवान् महावीर स्वामी समय को लेकर किया गया समझना चाहिए, क्योंकि उनकी आयु सौ वर्ष से कम थी । अतः इस देव-दुर्लभ मानव जन्म में विषय- जन्य सुखों को काकिणी और आम्र फल के समान तुच्छ जानकर उसके बदले देवलोकों की परम स्थिति को बुद्धिमान् पुरुष कभी न हारे । ‘वासा’ वर्ष शब्द में सकार को जो दीर्घ हुआ है, वह प्राकृत के नियम के आधार पर हुआ है। अब चौथा दृष्टान्त लाभालाभ - सम्बन्धी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर तीन व्यापारियों का दिया जाता है— जहा य तिन्नि वाणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया । गोऽथ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ || १४ || एगो मूलंपि हारिता, आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाह ॥ १५ ॥ यथा च त्रयो वणिजः, मूलं गृहीत्वा निर्गताः । एकोऽत्र लभते लाभं, एको मूलेनागतः ॥ १४ ॥ एको मूलमपि हारयित्वा, आगतस्तत्र वणिक् । व्यवहारे उपमैषा, एवं धर्मे विजानीत || १५ | पदार्थान्वयः —– जहा—जैसे, तिन्नि – तीन, वाणिया - व्यापारी लोग, मूलं मूल धन अर्थात् मूल पूंजी को, घेत्तूण - ले करके, निग्गया – परदेश को गए, अत्थ - उनमें से, एगो — एक, लाहं – लाभ को, लहई — प्राप्त करता है और एगो – एक, मूलेण - मूल धन लेकर, आगओ—आ गया, य - समुच्चयार्थक है, एगो — एक, वाणिओ – वणिक्, व्यापारी, तत्थ — उनमें से, मूलंपि—मूल धन को भी, हारिता — हार करके, आगओ – आ गया, ववहारे — व्यवहार में, एसा — यह, उवमा – उपमा है, एवं इसी प्रकार, धम्म-धर्म के विषय में, वियाणह – जानना चाहिए। मूलार्थ - किसी समय तीन व्यापारी अपनी-अपनी मूल पूंजी को लेकर व्यापार के निमित्त विदेश गए। उन तीनों में से एक को तो व्यापार में लाभ हुआ, दूसरा अपनी मूल पूंजी को स्थिर रखता हुआ घर को आ गया और तीसरा मूल धन को भी खो करके घर में लौट आया। यह जैसे व्यावहारिक उपमा है, उसी प्रकार धर्म के विषय में भी समझना चाहिए । टीका - इस गाथा में तीन व्यापारी पुरुषों के दृष्टान्त से एक गम्भीर तत्त्व को बड़ी ही सरलता से सूत्रकार ने समझाने का प्रयास किया है। मूल धन को लेकर व्यापार के निमित्त विदेश में जाने वाले श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् 262 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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