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________________ अणेगवासानउया, जा सा पण्णवओ ठिई । " जाणि जीयन्ति दुम्मेहा, ऊणे वाससयाउए ॥ १३ ॥ अनेकवर्षनयुतानि या सा प्रज्ञावतः स्थितिः । यानि जीयन्ते दुर्मेधसः, ऊने वर्षशतायुषि || १३ || पदार्थान्वयः – अणेग—अनेक, वासा–वर्ष, नउया— नयुत, जा— जो, पण्णवओ - प्रज्ञावान् की, ठिई — स्थिति है, जाणि – जिसको, दुम्मेहा— दुर्बुद्धि, जीयंति — हारते हैं, ऊणे – न्यून, वाससय – सौ वर्ष की, आउ – आयु में । सा - वह, मूलार्थ - प्रज्ञावान् की देवलोक में जो अनेक नयुत वर्षों की अथवा पल्योपम व सागरोपम की स्थिति है उसको दुर्बुद्धि मूर्ख जीव कुछ कम सौ वर्ष की आयु में विषय-भोगों के वशीभूत होकर हार 'देते हैं— उससे वञ्चित रह जाते हैं । टीका - इस गाथा में आए हुए 'अनेक वर्ष नयुत' शब्द का पल्योपम और सागरोपम अर्थ है। जो जन प्रज्ञावान् अर्थात् ज्ञान और क्रिया से युक्त हैं उनकी देवलोकों में पल्योपम या सागरोपम की स्थिति होती है । 'नयुत' शब्द से वर्षों का प्रमाण इस प्रकार माना गया है— चौरासी लाख वर्षों क़ा एक पूर्वंग होता है । उसको चौरासी लाख से गुणा करने पर एक पूर्व बनता है। फिर उस पूर्व को चौरासी लाख से गुणा करने पर एक नयुतांग होता है और नयुतांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर एक 'नयुत' होता है। प्रज्ञावान् जीवों की ऐसे असंख्यात् नयुत युगों तक देवलोक में स्थिति रहती है, अर्थात् जो जीव सांसारिक विषय-भोगों का परित्याग करके सम्यक् ज्ञान- पूर्वक चारित्र का आराधन करते हैं उनको देवलोक के सुखों की असंख्यात नयुत युगों तक प्राप्ति बनी रहती है। इसलिए जो बाल जीव कुछ न्यून सौ वर्ष की आयु में विषय-भोगों में पड़कर देवलोक के सुखों को हार देते हैं अर्थात् स्वर्ग प्राप्ति या देवलोक की प्राप्ति के योग्य सुकृत कर्मों का त्याग करके केवल सांसारिक विषय-भोगों में फंसे रहकर अपने स्वल्प जीवन को पूरा कर देते हैं, वे मानो काकिणी के बदले मोहरों अथवा आम्र फल के बदले में जीवन ही नहीं, अपना सर्वस्व व्यर्थ ही खो देते हैं। इसीलिए वे दुर्बुद्धि या परम मूढ़ कहे जाते हैं । अत्यन्त दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाले देवलोक के सुखों को तो वे ही साधक प्राप्त कर सकते हैं जो सांसारिक विषय-भोगों की ओर से सर्वथा उपराम होकर अपने इस स्वल्पतर जीवन में संयम की आराधना के द्वारा अपने को देवगति के योग्य बना लेते हैं। अन्यथा अधोगति के योग्य कर्मों का उपार्जन करने वाला दुर्बुद्धि तो देवगति के बदले नरक-गति के ही साधनों का संग्रह करके अपने देव-दुर्लभ मनुष्य जन्म को हार देता है--व्यर्थ खो देता है, यही उसका काकिणी के बदले मोहरों और आम्र फल के बदले राज्य का हारना है । यद्यपि शास्त्रों में पूर्वी की आयु का भी उल्लेख देखने में आता है, तथापि कुछ कम सौ वर्ष की आयु के उल्लेख का यह अभिप्राय है कि यदि यह जीव सौ वर्ष की आयु में उक्त देवलोकों की स्थिति श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 261 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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