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________________ को खो डाला इसी प्रकार विषयी पामर जीव भी रस - विषयिणी आसक्ति के कारण इन तुच्छाति- तुच्छ सांसारिक विषयों में पड़कर अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ में खो रहे हैं। अब इस दृष्टान्त की योजना करते हैं एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो, आउं कामा य दिव्विया ॥ १२ ॥ एवं मानुष्यकाः कामाः, देव-कामानामन्तिके । सहस्रगुणिता भूयः, आयुः कामाश्च दिव्यकाः || १२ | पदार्थान्वयः – एवं – इस प्रकार, माणुस्सगा – मनुष्य के, कामा — काम - भोग, देवकामाण – देवों के काम-भोगों के, अन्तिए — समीप, भुज्जो - बहुत, सहस्सगुणिया — हजार गुणा करके, आउं - आयु, य— और, कामा— काम भोग, दिव्विया — देवलोक - सम्बन्धी (तो भी पार नहीं पा सकते ) । मूलार्थ — इस प्रकार मनुष्यों के काम-भोग देवों के काम-भोगों के सामने सहस्रगुणा अधिक करने पर भी न्यून ही हैं क्योंकि देवों की आयु पल्योपम और सागरोपम की है एवं उनके काम-भोग भी दिव्य हैं । टीका-पूर्व गाथा में वर्णित काकिणी और आम्र फल के समान तो मनुष्यों के काम-भोग हैं और उनकी अपेक्षा कई सहस्र गुणा अधिक और दिव्य रूप होने से देवों के काम-भोग मोहरों और राज्य के समान हैं, इसलिए दोनों में बड़ा भारी अन्तर है । देवों के भोग-विलासों और आयु के सामने मनुष्यों के भोग-विलास इतने तुच्छ हैं तथा आयु भी इतनी स्वल्प है कि उसके लिए संसार में कोई उदाहरण मिलना कठिन है। बहुत थोड़े अंशों में राई और हिमालय पर्वत का दृष्टान्त इनकी लघुता और महत्ता सम्बन्ध में दिया जा सकता है। यद्यपि सर्वोपरि सुख तो मोक्ष - सुख है और वह निरतिशय तथा अनन्त है, उसके समक्ष तो देवलोक के सुख भी कुछ मूल्य नहीं रखते, परन्तु उस सुख का अनुभव तो अध्यात्मवाद की सर्वोच्च दशा पर पहुंचने वाले किसी-किसी समाधि-निष्ठ महामना महात्मा व्यक्ति में ही दृष्टिगोचर हो सकता है, इसलिए केवल मनुष्य लोक के विषय-भोगों में फंसे हुए जीवों के अधिकार को लेकर यहां पर उस मोक्ष-सुख का उल्लेख नहीं किया गया, किन्तु विषय - लोलुपी जीवों को शास्त्रकार उपालम्भ देते हुए कहते हैं कि—देखो, ये जीव कितने विवेक-शून्य और मूढ़ हैं जो कि एक दमड़ी के समान विषय-भोगों के बदले में मोहरों जैसे मानव जीवन को खो रहे हैं तथा एक तुच्छ आम्र फल के रसास्वादन के समान विषय- लालसा के बदले में अपने जीवन साम्राज्य को नष्ट कर रहे हैं, इसलिए विवेकी जनों को इन लौकिक विषयों की ओर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए । अब शास्त्रकार इस काकिणी और आम्रफल के दृष्टान्त से भव्य जीवों को प्रतिबोध देते हुए साथ में देवों और मनुष्यों की आयु का भी वर्णन करते हैं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 260 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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