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________________ को निकाल कर ले जाऊंगा। इस प्रकार विचार करने के अनन्तर उसने किसी निर्जन प्रदेश में जाकर बालुका में उस वासणी को दबा दिया और काकिणी लेने के लिए प्रस्थान कर दिया, परन्तु दैववशात् उस काकिणी को वहां से किसी और मनुष्य ने उठा लिया। जब वह वहां पर पहुंचा तो उसको वह काकिणी नहीं मिली। वह सोच-विचार करता हुआ जब वापस वासणी निकालने के लिए आया तो वहां पर उसे वह भी न मिली, क्योंकि उसके चले जाने पर किसी तस्कर ने उसे भी निकाल लिया था। . जब इस प्रकार काकिणी और मोहरों की वासणी ये दोनों ही उसके हाथ से चली गईं तो वह घर में आकर अपनी मूर्खता पर पश्चात्ताप करता हुआ अत्यन्त दुखी हुआ और एक दमड़ी के लिए हजार मोहरों को खो देने की अपनी मूढ़ प्रवृत्ति पर उसे बहुत ही खेद और पश्चात्ताप होने लगा। इसी अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार एक तुच्छ काकिणी के बदले उस मूर्ख वणिक् ने एक हजार मोहरों को खो दिया इसी प्रकार यह अज्ञानी जीव भी इन तुच्छ विषय-सुखों के निमित्त इस अमूल्य मनुष्य-जन्म को खो रहा हैं। दूसरे आम्र-फल का दृष्टान्त इस प्रकार है—किसी राजा को अधिक आमों के खाने से बड़ा ही भयंकर रोग उत्पन्न हो गया। वैद्यों ने बड़े परिश्रम से उसको शान्त किया और राजा से निवेदन किया कि अब आगे को आप आम्र-फल का कभी भक्षण न करें। यदि करेंगे तो फिर भयानक रोग के उत्पन्न हो जाने की संभावना है और सम्भव है कि फिर उसकी चिकित्सा भी न हो सके, इसलिए आप भविष्य में कभी आम्र-फल का सेवन न करें। राजा ने वैद्यों की इस हित-शिक्षा को भली-भांति सुना और उसके अनुकूल यहां तक आचरण किया कि अपने देश से आमों के सारे वृक्ष ही कटवाकर फिंकवा दिए। कुछ समय के बाद एक दिन वह राजा घोड़े पर सवार होकर किसी सुदूर प्रदेश के एक जंगल में जा निकला। वहां पर उसने आम्र-फलों से लदे हुए एक सुन्दर आम के वृक्ष को देखा। उस समय बादल गरज रहा था और थोड़ी-थोड़ी बूंदें पड़ रही थीं। राजा उस वृक्ष को छाया-संयुक्त देखकर घोड़े से उतरकर उसके नीचे विश्राम के लिए बैठ गया। इतने में अकस्मात् एक बड़ा सुन्दर आम का फल वायु के वेग से टूटकर नीचे भूमि में राजा के पास आ गिरा। राजा उस आम को देखकर बड़े विस्मय को प्राप्त हुआ। उस फल को अपने हाथ में उठाकर वह बार-बार देखने लगा और देखते ही उसका मन एकदम ललचा उठा। साथ में रहने वाले मंत्री आदि के द्वारा रोकने पर भी हठात् उसने उस आम्र फल को खा लिया। बस, खाने की देर थी कि वह फिर उसी पूर्व के रोग से ग्रसा गया और रोग का इतना भयंकर आक्रमण हुआ कि लाखों प्रयत्न करने पर भी वह उस रोग से मुक्त न हो सका और अन्त में मृत्यु की गोद में ही समा गया। ... इसी भाव को शास्त्रकार कहते हैं कि जिस प्रकार आम्र फल को मृत्यु का कारण जानते हुए भी उस राजा ने उस फल के भक्षण का त्याग नहीं किया, किन्तु रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर अपने जीवन श्री उत्तराध्ययन सत्रम / 259 / एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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