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________________ । इस प्रकार बकरे के दृष्टान्त का उल्लेख करने के बाद अब शास्त्रकार काकिणी और आम्रफल के दृष्टान्त का निरूपण करते हैं। यथा जहा कागिणिए हेउं, सहस्सं हारए नरो । अपत्थं अम्बगं भोच्चा, राया रज्जंतु हारए ॥११॥ यथा काकिण्या हेतोः, सहस्रं हारयेन्नरः । अपथ्यमाम्रकं भुक्त्वा, राजा राज्यं तु हारयेत् ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः–जहा—जैसे, कागिणिए—काकिणी के, हेउं—हेतु, सहस्सं—हजार मोहरों को, नरो–पुरुष, हारए—हार देता है, अपत्थं—कुपथ्य, अंबगं—आम्र फल को, भोच्चा-खा करके, राया-राजा, रज्ज—राज्य को, हारए—हार देता है, तु-वितर्क अर्थ में है। मूलार्थ जैसे काकिणी के लिए कोई अज्ञानी पुरुष हजार मोहरों को हार देता है और कुपथ्य रूप आम्र के फल को खाकर राजा राज्य को हार देता है (इसी प्रकार अज्ञानी जीवं संसार के थोड़े से विषय-जन्य सुखों के निमित्त देव-लोक के महान् सुखों को खो देता है)। टीका-इस गाथा में दो दृष्टान्तों का वर्णन किया गया है—एक काकिणी का, दूसरा आम्र फल का। इसमें प्रथम काकिणी का दृष्टान्त इस प्रकार है (काकिणी एक रुपए के ८०वें भाग का नाम है) किसी वणिक् को व्यापार में एक हजार मोहरों की प्राप्ति हुई। उसने उन मोहरों को एक वासणी में डालकर अपनी कमर में बांध लिया और अपने मित्रों के साथ अपने नगर के प्रति चलने को तैयार हो गया। रास्ते में खर्च करने के लिए उसने एक रुपए की ८० काकिणी (दमड़ियां) खरीद लीं और रास्ते में खर्च करता रहा। इसी प्रकार बहुत-सा मार्ग समाप्त कर लेने पर उसने ७६ काकिणी खर्च कर दीं और एक काकिणी जो उसके पास बच रही थी उसे वह कहीं पर रखकर भूल गया। ___ थोड़ी दूर और आगे जाने पर उसको उस भूली हुई काकिणी का स्मरण,आ गया, तब वह मन में विचार करने लगा कि और दूसरा रुपया भुंजाना पड़े इसकी अपेक्षा तो जहां काकिणी खो गई है, उसी स्थान पर चल कर उस खोई हुई काकिणी को ढूंढ कर लाना ही ठीक होगा। इस प्रकार विचार करने के बाद उसने अपने साथियों के समक्ष जाकर काकिणी ढूंढ लेने के विचार को प्रकट किया। ___ साथियों ने उसको ऐसा करने से बहुत मना किया, परन्तु वह न माना। तब साथियों को छोड़कर वह काकिणी लाने के लिए वापस चल पड़ा। रास्ते में उसने विचारा कि मैं अकेला हूं और मोहरें मेरे पास हैं, अतः इन मोहरों की वासणी को किसी एकान्त प्रदेश में बालू में दबाकर काकिणी को वहां से उठाकर वापस आता हुआ इस वासणी * काकिणी रूप्यकाशीतितमो भागः, इति वृत्तिकारः। | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 258 । एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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