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कुछ नहीं है। इसके अतिरिक्त परलोक तथा पुण्य-पाप आदि की जो कल्पना पंडित लोग करते हैं वह एक डरावा मात्र है। वास्तव में इस लोक के सिवाय अन्य कोई स्वर्ग-नरक आदि लोक नहीं हैं। इससे प्रतीत होता है कि नास्तिकों के मत में परलोक कोई वस्तु नहीं और पुण्य-पाप तथा उनके फल भोगने के स्थान स्वर्ग-नरक आदि भी कुछ नहीं एवं जन्मान्तरवाद भी उनको स्वीकार्य नहीं है । इसी कारण से इन नास्तिकों को ‘प्रत्युत्पन्न -परायण' कहा जाता है, अर्थात् वर्तमान कालीन विषय-भोगों में तत्पर रहना ही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है । परन्तु जब मृत्यु का समय निकट आता है तब वे अपने इन विचारों पर पश्चात्ताप करते हैं और खिन्नचित्त होकर शोक के अगाध समुद्र में डूबने लगते हैं, क्योंकि अब उन्हें परलीक की यात्रा करनी है और उस यात्रा में जिस पुण्य रूप पाथेय की नितान्त आवश्यकता है वह तो उनके पास है नहीं जिससे कि वे अपनी यात्रा में कुछ सहायता प्राप्त कर सकें, इसलिए उस समय उनको जो खेद होता है यह उनके इस प्रकार के विचारों के ही अनुरूप फल समझना चाहिए ।
इस गाथा में 'आगया से – आगते आदेशे' में जो 'आगया' शब्द का पूर्व में निपात किया गया है वह आर्ष होने के कारण समझना चाहिए।
अब उस जीव की भावी गति के विषय में कहते हैं—
तओ आउपरिक्खीणे, चुया देहा विहिंसगा | आसुरियं दिसं बाला, गच्छन्ति अवसा तमं ॥ १० ॥ तत आयुः परिक्षीणे, च्युतदेहा विहिंसकाः । आसुरिकां दिशं बालाः, गच्छन्ति अवशाः तमः || १० ||
पदार्थान्वयः —– तओ —– तदनन्तर आउ — आयु के, परिक्खीणे - परिक्षय होने पर, देहा- शरीर के, चुया—छूटने पर, आसुरीयं - रौद्र कर्म करने वाले नरक, दिसं― दिशा को जो, तमं— अन्धकार युक्त है, अवसा - कर्मों के वश होकर, गच्छंति — चले जाते हैं, बाला - अज्ञानी, विहिंसगा— जो नाना प्रकार की हिंसा करने वाले हैं।
मूलार्थ — इसके अनन्तर वे हिंसा आदि में प्रवृत्ति रखने वाले बाल - अज्ञानी जीव आयु के क्षय होने पर शरीर को छोड़कर कर्मों के अधीन होते हुए अन्धकार - युक्त आसुरी दिशा अर्थात् नरक -गति को प्राप्त होते हैं ।
टीका - हिंसा आदि क्रूर कर्मों प्रवृत्त होने वाले वे अज्ञानी जीव आयु का क्षय होने पर शरीर को छोड़ने के अनन्तर अन्धकार - युक्त आसुरी दिशा को प्राप्त होते हैं। गाथा के इस अभिप्राय के अनुसार वह आसुरी दिशा नरक गति ही है, क्योंकि रौद्र कर्मों के अनुष्ठान से जिस गति की प्राप्ति होती है उस गति को आसुरी दिशा कहा जाता है। हिंसा आदि रौद्र कर्मों का आचरण करने वाले प्राणी कर्मों के आधीन होकर नरक गति को प्राप्त होते हैं ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 257 / एलयं सत्तमं अज्झयणं