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________________ कर्म-रज को एकत्रित कर लेने के बाद उसका जो परिणाम होता है अब उस विषय को शास्त्रकार स्पष्ट करते हैं तओ कम्मगुरू जंतू, पच्चुप्पन्नपरायणे । अयं व्व आगयाएसे, मरणंतम्मि सोयई ॥ ६ ॥ __ततः कर्मगुरुर्जन्तुः, प्रत्युत्पन्नपरायणः । ... अज इवागत आदेशे, मरणान्ते शोचति || ६ || पदार्थान्वयः–तओ तदनन्तर, कम्मगुरू—कर्मों से भारी, जंतू—जीव, पच्चुप्पन्न –वर्तमान में, परायणे तत्पर, अय व्व—बकरे की तरह, आगयाएसे—मेहमान के आने पर, मरणंतम्मि–मृत्यु के समीप आने पर, सोयई-सोच करता है। मूलार्थ इसके अनन्तर कर्म-मल से भारी हुआ यह जीव वर्तमान काल के सुखों में लीन जैसे बकरा प्राघुणक अर्थात् मेहमान के आने पर शोक करता है वैसे ही मृत्यु के समीप आने पर वंह सोच करता है। टीका—कर्म-मल के संचय से भारी होने वाला आत्मा वर्तमान कालं के सुखों में निमग्न होकर अपने वास्तविक कर्तव्य को बिल्कुल ही भूल जाता है, परन्तु मृत्यु के समीप आने पर उसकी वही दशा होती है जो प्राघुणक (अतिथि-मेहमान) के आने पर उस हष्ट-पुष्ट बकरे की होती है, अर्थात् रस-गृद्धि में मग्न हुआ वह बकरा जिस प्रकार अपने दुखपूर्ण भविष्य का बिल्कुल चिन्तन नहीं करता और अतिथि के आने पर उसका वह सारा हर्ष शोक के रूप में बदल जाता है ठीक इसी प्रकार से काम-भोगासक्त प्राणी को भी मृत्यु के उपस्थित होने पर ही अपने अनुचित कामों का भान होता है, परन्तु उस समय उसका पश्चात्ताप बिल्कुल व्यर्थ होता है। इसलिए बुद्धिमान् जनों को पहले से ही सावधान रहने की आवश्यकता है। इस विषय के अतिरिक्त इस गाथा में नास्तिकता के विचारों की भी ध्वनि निकलती है, अर्थात् जिस प्रकार नास्तिक लोग पुण्य और पाप के फल का विचार न करते हुए केवल ऐहिक विषय-भोगों को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य मानकर उनमें निमग्न रहने का प्रयत्न करते हैं, उसी प्रकार कर्म-मल से भारी होने वाला आत्मा भी ऐहिक विषय-भोगों में आसक्त रहते हुए मृत्यु के समीप आने पर ही पश्चात्ताप करता है। आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले नास्तिकता के विचारों का अनुसरण करने वाले व्यक्तियों के परलोक तथा पुण्य-पाप के सम्बन्ध में जो विचार हैं वे सार-शून्य होने पर भी बड़े स्पष्ट हैं, उनका कहना है 'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः । भद्रे! वृकपदं पश्य, यद्वदन्ति बहुश्रुताः ॥' अर्थात् जो कुछ इन इन्द्रियों से देखा सुना जाता है बस इतना ही यह लोक है, इसके बिना और श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 256 । एलयं सत्तमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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