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अब शास्त्रकार इस लोक-सम्बन्धी पदार्थों के संग्रह और त्याग के निमित्त से होने वाले कष्टों के विषय में कहते हैं
आसणं सयणं जाणं, वित्तं कामे य भुंजिया । दुस्साहडं धणं हिच्चा, बहुं संचिणिया रयं ॥ ८ ॥
आसनं शयनं यानं, वित्तं कामांश्च भुक्त्वा ।
दुःसंहृतं धनं त्यक्त्वा , बहु संचित्य रजः || ८ || पदार्थान्वयः—आसणं—आसन, सयणं शयन–शय्या, जाणं यान—सवारी आदि, वित्तं—धन, य—और, कामे—काम-भोगों को, भुंजिया–भोग करके, दुस्साहडं—दुःख से एकत्रित किए गए, धणं—धन को, हिच्चा त्याग करके, बहुं—बहुत, रयं-कर्म-रज, संचिणिया—एकत्रित करते हैं।
मूलार्थ—आसन, शय्या, यान, वित्त और काम-भोगों को भोगकर तथा दुख से उपार्जन किए हुए धन का परित्याग और कर्म-रज का संचय करके यह प्राणी अपने कर्मों के अनुसार शुभ-अशुभ योनि को प्राप्त होता है।
टीका इस आठवीं और नवमी गाथा में सांसारिक पदार्थों के भोग और उपभोगों की चर्चा के साथ कष्ट से उपार्जन किए गए धन आदि का अन्त में त्याग करके परलोक में गमन करने तथा अपने जीवन-काल में कर्म-रज का संचय करने का जो उल्लेख किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि जिन सांसारिक पदार्थों के सम्बन्ध को यह प्राणी क्षण भर के लिए भी छोड़ना नहीं चाहता, समय आने पर उन सबको छोड़कर वह खाली हाथ इस संसार से चला जाता है, परन्तु कर्मों की रज को एकत्रित करके वह अपने साथ अवश्य ले जाता है तथा अपने अध्यवसाय के अनुसार किए हुए अशुभ कर्मों के द्वारा वह ऊंच अथवा नीच गति को प्राप्त हो जाता है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि विषय-लोलुप यह पामर जीव आसन, शयन–पर्यंकादि, यान—सवारी आदि और नाना प्रकार के धन-रत्नादि तथा काम-भोगादि विषयों को यथारुचि भोगकर और बड़े कष्टों से उपार्जन किए हुए धन को छोड़कर एवं कर्मरज को एकत्रित करके यह प्राणी अपने किए हुए कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली योनियों में चला जाता है।
इस गाथा में धन का दो बार प्रयोग किया गया है और साथ ही धन-प्राप्ति को कष्ट-साध्य बताया गया है। इसका प्रयोजन इतना ही है कि सांसारिक पदार्थों में धन का अधिक प्राधान्य है एवं धन-प्राप्ति के जो शिल्पकला आदि उपाय हैं वे भी अत्यन्त परिश्रम से प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए धन का एकत्रित करना बहुत ही कष्टसाध्य है तथा सांसारिक विषयों की पूर्ति अधिकांश में धन से ही हो सकती है, अतः अन्य सबकी अपेक्षा धन का सम्पादन अधिक दुखों का कारण है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 255 / एलयं सत्तमं अज्झयणं