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तो हैं ही, परन्तु मांस और मदिरा का व्यवहार तो विशेष रूप से नरक-गति का कारण है। इसी अभिप्राय से उक्त गाथा में इन दोनों का पृथक्-पृथक् प्रयोग किया गया है। सारांश यह है कि इस प्रकार के दुष्ट कर्म करने वाले अधर्माचरण में प्रवृत्त आत्माओं की वासनाएं सदैव काल विकृत ही रहती हैं। इसीलिए ऐसे जीव नरक गति के योग्य बन जाते हैं और स्वयं अनिष्ट मार्ग का अनुसरण करते हुए दूसरे भोले जीवों को भी उस दुष्ट मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते एवं धर्मात्मा पुरुषों की हंसी उड़ाते हुए अधर्मियों से प्रेम रखते हैं। अब इसी विषय पर और कहते हैं
अयकक्करभोई य, तुंदिल्ले चिय-लोहिए । आउयं नरए कंखे, जहाऽऽएस व एलए ॥ ७ ॥
अजकर्करभोजी च, तुन्दिलः चितलोहितः ।
__ आयुर्नरके कांक्षति, यथाऽऽदेशमिवैडकः ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः-अय—अज—बकरे के, कक्कर-कर्कर शब्द करने वाले मांस का, भोईभोजन करने वाला, तुंदिल्ले-बड़े पेट वाला, य—और, चियलोहिए—उपचित हो गया है रुधिर जिसका, आउयं—आयु, नरए—नरक में, कंखे—चाहता है, जहा—जैसे, आएसं—आदेश को, एलए-बकरा, व–उसी तरह वह नरक को चाहता है।
मूलार्थ जैसे पुष्ट हुआ वह बकरा मानो अतिथि को चाहता है, उसी प्रकार कर्कर करके बकरे के मांस को खाने वाला तथा जिसका पेट रुधिर और मांस के उपचय से बढ़ा हुआ है ऐसा जीव अपना वास नरक में चाहता ही है।
टीका–पिछली गाथा में महारम्भ और महापरिग्रह के साथ-साथ मांस-भक्षण को भी नरक का हेतु बताया गया है। अब उसी विषय को दृढ़ करने के लिए इस गाथा में मांसाहार को स्वतन्त्र रूप से नरक का कारण बताने का प्रयत्न किया गया है। बकरे के स्थूल अंगों का पका हुआ मांस खाते समय करी-कर्र या कड़कड़ का शब्द हुआ करता है। जिस प्रकार चनों को चबाने से मुंह में शब्द होता है उसी प्रकार बकरे के मांस को चबाने पर भी करी-कर्र या कड़-कड़ की आवाज निकलती है, क्योंकि उसमें स्थूल अस्थियों का संयोग अधिक होता है, अतः जब वे चबाई जाती हैं तब उनका चनों की भान्ति शब्द होता है। इस प्रकार बकरे के मांस को खाने वाला और उसके खाने में मांस और रुधिर के अधिक उपचय से जिसका उदर बढ़ गया है ऐसा पुष्ट प्राणी मेहमान की प्रतीक्षा करने वाले उस हष्ट-पुष्ट बकरे की तरह नरक के जीवन की इच्छा करता है।
तात्पर्य यह कि मांस-भोजन के द्वारा अपने शरीर को पुष्ट करने वाला प्राणी नरक-गति का भागी होता है। सो इन तीन (५-६-७) गाथाओं में जीव के नरक योग्य कर्मों का दिग्दर्शन कराया गया है। अज-मांस अन्य जाति के सभी जल-चर, थल-चर और नभ-चर जीवों के मांस का उपलक्षण है, यहां उसका ग्रहण केवल प्रधान होने से किया गया है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 254 / एलयं सत्तमं अज्झयणं